पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२९६

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सप्तत्रिंशोऽध्यायः २७७ (*त्रियोजनशतायामा विस्तीर्णाः शतयोजनः । सुरसमलपानीयरम्यं तत्र सरोवरम् ।।२ द्रोण्यायामप्रमाणैस्तु पुण्डरीकंः सुगन्धिभिः।) सहस्रशतपत्रैहि महाप रलंकृतम् ३ महोरगैरध्युषितं + महाभोगैर्हरासदैः । देवदानवगन्धर्वैरुपस्पृष्टं जलं शुभम् ॥४ पुण्यं तच्छुसरो नाम प्रकाशं दिवि चेह च । प्रसन्नजलसंपूर्ण शरण्यं सवदेहिनाम् ५ तत्र त्वेकं महापझ मध्ये पवनस्य ह। कोटिपत्रप्रचारं तत्तरुणादित्यवर्चसम् ६ नित्यं व्याकोशमजरं चाञ्चल्याच्वतिमण्डलम् । चारुकेशरजालाढय मत्तषट्पदनादितम् तस्मिन्पमै भगवती साक्षाच्छनत्यमेव हि । लक्ष्म्याः पद्मं तदावासं मूतमत्या न संशयः ।e सरसस्तस्य पूर्वस्मस्तटे सिद्धनिषेविते । सदा पुष्पफलं रम्यं तत्र बिल्ववनं महत् शतयोजनविस्तीर्णं त्रियोजनशतायतम् । अर्धक्रोशोच्चशिखरैर्महावृकैः सहस्रशः । १० शाखासहस्रकलितैर्महास्कस्थैः समाकुलम् । फलैः सुवर्णसंकाशैर्हरितैः पाण्डुरैस्तथा ११ अमृतस्वादुसदृशैर्मेरोमानैः सुगन्धिभिः । शर्यमाणैः पतद्भिश्च कीर्णा भूमिनिरन्तरा १२ ७ उनमें एक सरोवर भी है, जिसका जल रमणीय, निर्मल और सुस्वादु है ।२। द्रौणी के विस्तार के अनुकूल सुगन्धित पुण्डरीक और हजार पंखड़ीवाले पद्यों से वह सुशोभित है ।३। उसमें विशाल शरीरवाले दुर्धर्षे महासर्प निवास करते हैं और देव-दानव जिनके शुभजल में सदा स्नान किया करते हैं ।४। यह पवित्र श्रीसर स्वर्ग और मृत्युलोक में विख्यात है । यह सदा निर्मल जल से परिपूर्ण रहता और सब देहधारियों का शरण दाता है ।५। वहाँ पद्मवन के मध्य में एक महापद्म है. जिसमें करोड़ पखड़याँ हैं और जो तरुण सूर्य की तरह प्रकाशपूर्ण है। यह सर्वदा विकसित रहता है, कभी भी मुझता नहीं, इसमें कोमल केसरजाल भरे हैं जिनके लोभ से मतवाले भौरे पुंजते रहते हैं । उस पत्र में साक्षात् लक्ष्मी सदा निवास करती है । मूर्तिमती लक्ष्मी का वह निवासस्थान है, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।६-८। उस सरोवर के पूर्वीय तट पर सिद्धगण निवास करते है । वहाँ फूल-फलों से लदा हुआ एक मनोहर और विस्तृत बिल्त्रवन है । वह सौ योजन चौड़ा और तीन सौ योजन लम्बा है । आधे कोस ऊँचे बड़े बड़े हजारों वृक्ष उसमें खड़े हैं । उनके बड़े विशाल तने हैं, जो हजारों शाखाओं से सुशोभित हैं और उनमें सोने के समान पीलेहरे और पाण्डुर वर्ण के फल लगे हुये हैं ।e-११। ये सभी फल सुगन्धित, अमृत की भाँति स्वादिष्ठ और भेरी बाजे के बराबर बड़े बड़े हैं । जब

  • धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थो ङ. पुस्तके नास्ति । +- महाभोगैरित्यारभ्य सप्तचत्वारिंशाध्यायस्यषोडशश्लोकस्थ

ब्रह्मपातो निवसतीत्यन्तग्रन्थः ख. पुस्तके नास्ति ।