पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२८६

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चतुस्त्रिंशोऽध्यायः २६७ ८४ सा हि तेजोवती नाम हुताशस्य सहसभा । साक्षात्तत्र सुरश्रेष्ठः सर्वदेवमुखोऽनलः ८१ शिखाशतसहस्राढयो ज्वालामाली विभावसुः । स्तूयते हूयते चैव तत्र सषगणैः सुरैः ८२ अधिदैवकृतं विप्रैविशेषः स तु उच्यते । सविभागं च तेजल सर्व ए (मे) व न संशयः ८३ भोगान्तरमनुप्राप्त एकतेजोविभुः स्मृतः । पृथक्त्वं च हि युक्त्या तु कार्यकारणमिश्रितम् तमाग्न लोकलफलैस्तद्वधैस्तत्परामैःमहात्मभिर्महासिद्धेर्महाभागैर्नमस्कृतम् t८५ तृतीयेऽप्यन्तरतट एवमेव महासभा। वैवस्वतस्य विज्ञेया लोके ख्याता सुसंयमा तया चतुर्थदिग्देशे नैऋत्याधिपतेः सभा । नाम्ना कृ४णाङ्गन नाम विरूपाक्षस्य धीमतः पञ्चमेऽप्यन्तरतटे एवमेव महासभा। वैवस्वतस्य विज्ञेया नाम्ना शु भवती सती । उदकाधिपतेः ख्याता वरुणस्य सहात्मनः परोत्तरे तथा देशे षष्ठेऽन्तरतटे शिवे। वयोर्गन्धवती नाम सभा सर्वगुणोत्तरा ।८ सप्तमेऽयन्तरतटे नक्षत्राधिपतेः सभr । नाम्नि महोदया नाम शुद्धवैदूर्यवेदिका तथाऽष्टमेऽन्तरतट ईशानस्य महात्मनः । यशोवती नाम सभा सप्तकावनसुप्रभा &१ महाविमानान्येतनि दिक्ष्वष्टसु शुभवि हि । अष्टानां देवमुख्यानामिन्द्रादीनां महात्मनाम् ।२ ८७ ८८ ३० देव की ऐसी ही तेजोवती नाम की महासभा है । वहीं साक्षात् अग्नि देव विराज मान रहते हैं । ये ही अग्नि देव देवों के मुख है । जो हजारों शिखावाले ज्वालामाली अग्नि देवो और ऋषियो द्वारा वन्दनीय है और हवन द्वारा पूजित है ।७८-८२। ब्राह्मण लोग उन्हे विशिष्ट अधिदेव कहा करते है । अग्नि ही सम्पूर्ण तेजों की समष्टि है, इसमें सन्देह नही है ।८३। अनेक भागो को प्राप्त कर वे अद्वितीय तेजोनिधि विभु रूप मे बर्तमान है । किन्तु कार्य-करण के अनुसार उनका युक्तिपूर्वक विभाग किया जाता है । इसी प्रकार मेरु के तीसरे तट पर वैवस्वत की भी एक महासभf है, ज। संसार में सुसंयमा नाम से विख्यात है ।८४ ८६ चौथी ओर रक्षोपति धीमान् विरूपाक्ष की कृष्णाङ्गना नाम की सभा है । इसी प्रकार पाँचवे तट पर वैवस्वत की शुभवती नाम की महासभा है । वही जलाधिपति मह।मा वरुण की सती नाम को महासभा है ।८७-८८॥ इस सभा का उत्तर दिशा मे छठे तट पर वायु की सर्वगुण-सम्पन्न गन्धवती नाम की सभा है । मेरु के सातवे तट पर चन्द्रमा की महोदया नाम की सभा है, जिसमे शुद्ध वेद्यं मणि की वेदी बनी हुई है ।८६-६० आठवे स्तर पर महात्मा ईशान की तपाये सोने की तरह चमकने वाली यशोवती नाम की सभr है ।६१। इन्द्र आदि आठ प्रमुख महात्मा देवों के ये आठ विमान आठों दिशाओं में कहे गये है । महाभाग्यशाली ऋपिगंग, देवगण,