पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२८५

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

२६६ 0 ६६ ७० ७१ ७२ ७३ ७४ तस्य पर्वतहर्ता ऽस्मिन्नानाश्रयविभूषिते । सर्वदेवनिकायानि संनिविष्टान्यनेकशः तमावसच्वोर्बतले देवदेवश्चतुर्मुखः । ब्रह्मा ब्रह्मविदां श्रेष्ठो वरिष्ठस्त्रिदिवौकसस् महाभुवनसंपूर्णाः सर्वैः कामफलप्रदैः । महापुरसह न त दिक्ष्वनेकसमाकुलम् तत्र ब्रह्मसभा रम्या ब्रहधगणसेविता । नान्न मनोवती नाम सर्वलोकेषु विश्रुता तत्रेशानस्य देवस्य सहदादित्यवर्चसम् । सहाविमानसंस्थस्य महिम्ना वर्तते सदा तत्र सर्षिगणा देवाश्चतुर्वक्त्रस्य ते तदा। तदेव तेजसां राशिर्देवानां तत्र सीत्यंते तत्राऽऽस्ते श्रीपतिः श्रीमान्सहस्राक्षः पुरंदरः। उपास्यामस्त्रिदशैर्महायोगैः सुरषिभिः तत्र लोकपतेः स्थानमादित्यसमवर्चसः । महेन्द्रस्य महाराज्ञः सर्वसिद्धेर्नमस्कृतम् तमिन्द्रलोकं लोकस्य ऋद्धया परमया युतम् । दीप्यते त्वमरश्रेष्ठंस्त्रिदशैनित्यसेवितम् द्वितीयेऽप्यन्तरतटे वैदिश्ये पूर्वदक्षिणे । नानाधातुशतैश्चित्रैः सुरम्यमतितेजसम् नैकरत्नथततलमनेकस्तम्भसंयुतम् । जाम्बूनदकृतोद्यानं नानारत्नसुवेदिकम् कूटागारैवनिक्षिप्तमनेकैर्भवनोत्तमैः । महविमनं प्रथितं भास्वरं जातवेदसम् ७५ I७६ I७७ ७८ १७६ ८० प्रभा पाश्र्व भाग में भी छिटकती रहती है ।६६-६८। मेरु के सहस्रो गण्डशैल पर विविध भाँति के जीव आश्रय लिये हुये है और अनेकानेक देवगण वहाँ निवस कर रहे हैं । देवताओं में अग्रगण्य और ब्रह्मवादियों में श्रेष्ठ देवाधि चतुर्मुख ब्रह्मा भी स्वयं उसके ऊपर के एक भाग में निवास करते है । सम्पूर्ण कर्म फल को देने वाले महाभुवनों से परिपूर्ण हजारों पुर इस पर्वत पर विद्यमान हैं. जो सभी दिशाओं में फैले हुये है ।६६-७१। वहां ब्रह्मर्षयों से सेवित एक मनोहारिणी ब्रह्मसभा है जिसका नाम मनोवती है और जो सभी लोकों में विख्यात है ।७२। इस पर्वत पर महविमान में स्थित ईशान देव का भी सहस्र सूर्यों के समान देदीप्यमान आवास स्थान है। जो उनकी महिमा के ही अनुरूप है ।७३। वह देवता, ऋषि और स्वयं चतुरानन विराजते रहते हैं । देवों द्वारा अधिष्ठित वह स्थान तेजो की राशि कहा गया है ।७४॥ यहाँ शोभा सम्पन्न श्रीमान् सहस्राक्ष इन्द्र भी निवास करते है, जिनकी महायोगी देवfष और देव सेवा करते है ।७५वहाँ सूर्य के समान तेजस्वी लोक-पति महाराज महेन्द्र का स्थान है, जो निखिल सिद्धों द्वारा वन्दनीय है । वह इन्द्र लोक संसार की श्रेष्ठ सम्पत्तियों से युक्त और अमर पुंगवो से नित्य सेवित होने के कारण दीप्त है ७६-७७। पूरवदक्खिन की ओर उसके दूसरे किनारे पर विविध घातुओ से चित्रित सुन्दरसा चमचमता हुआ अग्नि देव का एक भास्बर विमान विद्यमान है । जिसमें रनमणिय से जड़ी हुई कितनी ही छतें है, जो अनेकानेक खंभों पर टिकी हुई है । उसमें सोने का ही उद्यान है, जिसमे रत्नमणियो को क्यारियाँ वनी है, बहुतेरे कूटागार और उत्तम-उत्तम भवन बने है । अग्नि