पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२७९

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२६॥ वायुपराष्पम् ॥७ सप्तद्वीपं तु वक्ष्यामि चन्द्रादित्यग्रहैः सह । येषां मनुष्यास्तर्केण प्रमाणानि प्रचक्षते अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तर्केण भावयेत् । प्रकृतिभ्यः परं यच्च तन्नित्यं च प्रचक्ष्य (क्ष) ते ।।८ नववर्षे प्रवक्ष्यामि जम्बूद्वीपं यथा तथा। विस्तरान्मडलाच्चैव योजनैस्तन्निबोधत शतमेकं सहस्राणां योजनानां प्रमाणतः । नानाजनपदाकीर्णाः पुरैश्च विविधैः शुभैः ।।१० सिद्धचारणगन्धर्वपर्वतैरुपशोभितम् । सर्वधातुनिबद्धेश्च शिलाजालसमुद्भवैः। पर्वतप्रभवाभिश्च नदीभिः पर्वतैस्तथा ११ जम्बूद्वीपः पृथुः श्रीमान्सर्वतः परिवारितः । नवभिश्चऽऽवृतः सर्वैर्भवनैर्भूतभावनैः । (+लावणेन समुद्रेण सर्वतः परिवारितः ) १२ जम्बूद्वीपस्य विस्तारात्समेन तु समन्ततः। प्रागायताः सुपर्वाणः षडिमे वर्षपर्वताः । अवगाढा उभयतः समुद्रौ पूर्वपश्चिमौ १३ हिमप्रायश्च हिमवान्हेमकूटश्च हेमवान् । तरुणादित्यवर्णाभो हैरण्यो निषधः स्मृतः ।।१४ चतर्वर्णस्त सौवण मेरुश्चोच्चतमः स्मृतः । प्लुताकृतिप्रमाणश्च चतुरस्रः समुच्छितः ॥१५ वर्णन सौ वर्षों मे भी नहीं हो सकता है ।६। इस समय चन्द्र, सूर्य और ग्रहो के साथ केवल सातों द्वापों का ही वर्णन करते है । मनुष्य गण तर्क द्वारा इनका प्रमाण कहा करते है किन्तु जो अचिन्तनीय विषय है उनके सम्वन्ध मे तव नही करना चाहिये । जो प्रकृति से अतीत परम वस्तु है, वही नित्य कहलाता है - ॥७८। जो हो, हम नौ देशो वाले जम्बूद्वीप का यथारूप वर्णन करते हैं । वृत्ताकार इस द्वीप का विस्तार जितने योजनो का है, सो सुनिये ।e। इस द्वीप का परिमाण एक हजार एक सो योजन का है । इस द्वीप में कितने ही देश हैं और विविध भाँति के सुन्दर पुरो से तथा सिद्ध, चारण, गन्धवं एवं पर्वतों से सुशोभित है। यहाँ के पर्वतों मे नाना प्रकार की धातुएँ भरी पड़ी है, शिलाखण्डो से और पर्वतीय नदियो से सब पर्वत सुशोभित हो रहे हैं । इस प्रकार यह शोभा-सम्पन्न विशाल जम्बूद्वीप नौ देशों में विभक्त और भूतभावन देवो द्वारा व्याप्त है तथा चारो ओर लवण सागर से घिरा हुआ है १०१२। चारों ओर से जम्बूद्वीप के विस्तार के ही अनुसार पूर्व की ओर अधिक लम्बे, और सुन्दर शिखरों से युक्त छः वर्ष पर्वत है। वे सब दोनों ओर फैलकर पूर्व-पश्चिम समुद्रों मे डूबे हुये हैं ।१३। इन छवों देश-विभाजक पवंतो के नाम हैं-तुषारावृत, हिमवान्हेममयहेमकूट, बाल-सूर्य के समान सुनहला निषध और चातुर्वर्णमय सुवर्णमण्डित् मेरु । मेरु सवसे उच्चतम कहा गया है । इसका प्रमाण प्लुताकृति ( ऊबड़-खाबड़ ), चौकोर और बहुत ऊँचा है । इसके चारों ओर भिन्न-भिन्न वर्गों +इदमर्घ नास्ति ख घ. पुस्तकयोः ।