पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२७१

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२५२ ॥६६ संध्यासध्यांशकैरेव हे सहस्त्र तथाऽपरे । एवं द्वादशसाहनपुराणं कवयो विदुः यथा वेदश्चतुष्पादश्चतुष्पादं तथा युगम् । यथा युगं चतुष्पादं विधात्रा विहितं स्वयम् । चतुष्पादं पुराणं तु ब्रह्मणा विहितं पुरा इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते युगधर्मनिरूपणं नाम द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥३२॥ ।६७ अथ त्रयस्त्रिशोऽध्यायः यदुवंश्चावणनम् स्टुतउवाच ॥१ मन्वन्तरेषु सर्वेषु अतीतानागतेष्विह । तुल्याभिमानिनः सर्वे जायन्ते नामरूपतः देवाश्च विविधा ये च तस्मिन्मन्वन्तरेऽधिपाः । ऋषयो मनवश्चैव सर्वे तुल्याभिमानिनः २ संध्या तथा संध्यांश दो हजार वर्षों के । इस प्रकार युग पादों का परिमाण कवियों ने बारह हजार वर्षों का कहा है ।६५-६६जैसे वेद चार पादों के है, उसी प्रकार युग भी चार पादों के होते है । विधाता ने जैसे युग का स्वयं चतुष्पाद विधान किया है वैसे ही ब्रह्मा ने भी पहले युग को चतुष्पाद बनाया है ।६७। श्रीवायुमहापुराण में युग का धर्मनिरूपण नामक बत्तीसवां अध्याय समाप्त ।।३२।। अध्याय ३३ स्वायम्भुव. वंशवर्णन सूतजी बोले--वीते हुये और आने वाले सभी मन्वन्तरों में नाम और अनुसार भाव रूप के समान से कुछ अभिमानी देवता हुआ करते है ।१। उस मन्वन्तर में अनेकानेक देवता, मन्वन्तर के स्वामी, ऋषि, मनु