पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२५६

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त्रिंशोऽध्यायः मानुषेषु तु सर्वज्ञ ज्वरो नामैष ततः । मरणे जन्मनि तथा मध्ये च विंशते सदा ३०३ एतन्माहेश्वरं तेजो ज्वरो नाम सुदारुणः । नमस्यश्चैव मान्यश्च सर्वप्राणिभिरीश्वरः ३०४ इमां ज्वरोत्पतिमदीनमानसः पठेत्सदा यः सुसमाहितो नरः । विमुक्तरोगः स नरो मुदा युतो लभेत कमन्स यथा मनषितान् ३०५ दक्षप्रोक्तं स्तवं चापि कीर्तयेद्यः शृणोति वा । नाशुभं प्राप्नुयात्कचिद्दीर्घ चाऽयुरवाप्नुयात् ।।३०६ यथा सर्वेषु देवेषु वरिष्ठो योगवान्हरः। तथा स्तवो वरिष्ठोऽयं स्तवानां ब्रह्मनिमितः ।।३०७ यशोराज्यसुखैश्वर्यवित्तायुर्धनकाङ्क्षभिः । स्तोतव्यो भक्तिमास्थाय विद्याकामैश्च यत्नतः ॥३०८ व्याधितो दुःखितो दीनवरत्रस्तो भयादतः । रजकार्यनियुक्तो वा मुच्यते महतो भयात् ॥३०६ अनेन चैव देहेन गणानां स गणाधिपः। इह लोके सुखं प्राप्य गण एवोपपद्यते ३१० न च यक्षाः पिशाचा वा न नागा न विनायकाः । कुछं विघ्नं गृहे तस्य यत्र संस्तूयते भवः ॥३११ शृणुयाद्वा इदं नारी सुभक्तया ब्रह्मचारिणी । पितृभिर्भतृ पक्षाभ्यां पूज्या भवति देववत् ॥३१२ शृणुयाद्वा इदं सर्वं कीर्तयेद्वाऽप्यभीक्ष्णशः । तस्य सर्वाणि कार्याणि सिद्धिं गच्छन्त्यविघ्नतः ” ३१३ मनसा चिन्तितं यच्च यच्च वचऽप्युदाहृतम् । सर्व संपद्यते तस्य स्तवनस्यानुकीर्तनात् ।।३१४ विमिका ज्वर है एवं इसी प्रकार सिहों के लिये भी परिश्रम ज्वर कहा गया है ।३०३। सर्वज्ञ ! मनुष्यों के लिये वह ज्वर नाम से कहा गया है, जो जन्म-मरणकाल में और बीच में भी मनुष्यों के शरीर में प्रवेश करता है । यह जो अरभन्त कठोर ज्वर है, वह महेश्वर का तेज है: अतएव यह ईश्वर ज्वर सब प्राणियों द्वारा माननीय और वन्दनीय है । ३०४३०५। जो मनुष्य सुप्रसन्नचित्ते से एकाग्र होकर इस ज्वरोत्पत्ति को सदा पढ़ता है, वह रोग से छुटकारा पाकर आनन्द लाभ करता है और अपनी अभिलषित कामना को प्राप्त करता है ।३०६॥ दक्ष द्वारा कहे गये स्तव ' को भी जो सुनता है या कहता है, उसका कोई अनिष्ट नहीं होता और वह दीर्घायु प्राप्त है । देवों मे योगी महदेव श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार स्तवों के बीच यह ब्रह्यानिमित स्तव करता जैसे सव श्रेष्ठ है ३०७-०८ यश, राज्यसुख, ऐश्वर्य, धन, आयुवित्त और विद्या की कामना करने वाले यत्नपूर्वक, भक्ति पूर्वक इस स्तोत्र का पाठ करे । जो पीड़ित, दुःखी, दीन चोर से डरे हुए और राजकार्य में नियुक्त हैं, वे बड़े भय से भी मुक्त हो जाते है ।३०६-३१०। इसी देह से वे गणों के बीच गणाधिप हो जाते है और इस लोक में सुख प्राप्त कर णिवगण हो जाते है। जिस घर में इस स्तव से महदेव की स्तुति होती है, वह यक्ष, पिशाच, नाग और विनायक आदि कोई विन्न नहीं करते हैं, ब्रह्मचारिणी होकर भक्ति श्रद्धा से जो स्त्री इस स्तवराज का श्रवण करती है, वह पितृकुल और भ्रातृकुल में देवता की तरह पूज्य होती हैं ।३११-३१३। जो इस सम्पूर्ण स्तोत्र का श्रवण करता है या बारबार पाठ करता है, उसके सभी कार्य निविन्न रूप से