पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२५४

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त्रिंशोऽध्यायः २३५ पवयवसुभूतेषु दिशासु विदिशासु च)। चन्द्रार्कयोर्मध्यगता ये च चन्द्रार्करश्मिषु २८१ रसातलगता ये च ये च तस्मात्परंगताः। नमस्तेभ्यो नमस्तेभ्यो नमस्तेभ्यश्च नित्यशः । सूक्ष्माः स्थूलाः कृशा ह्रस्वा नमस्तेभ्यस्तु नित्यशः २८२ सर्वस्त्वं सर्वगो देव सर्वभूतपतिर्भवान् । सर्वभूतान्तरात्मा च तेन रवं न निमन्त्रितः २८३ त्वमेव चेज्यसे यस्माद्यत्रैवविधदक्षिणैः। त्वमेव कर्ता सर्वस्य तेन त्वं न निमन्त्रितः २८४ अथ वा मायया देव मोहितः सूक्ष्मया त्वया । एतस्मात्कारणाद्वाऽपि तेन त्वं न निमन्त्रितः ।।२८५ प्रसीद मम देवेश त्वमेव शरणं मम । त्वं गतिस्त्वं प्रतिष्ठा च न चान्याऽस्ति न से गतिः ॥२८६ स्तुत्वैवं स महादेवं विरराम प्रजापतिः। भगवानपि सुप्रीतः पुनर्दक्षमभाषत २८७ परितुष्टोऽस्मि ते दक्ष स्तवेनानेन सुव्रत । बहुनाऽत्र किमुक्तेन मत्समीपं गमिष्यसि ।।२८८ अथैनमब्रवीद्वाक्यं त्रैलोक्याधिपतिर्भवः। कृत्वाऽऽश्वासकरं वाक्यं वाक्यज्ञो वाक्यमाहतम् ॥२८६ दक्ष दक्ष न कर्तव्यो मन्युवध्नमिमं प्रति । अहं यज्ञह न त्वन्यो दृश्यते तत्पुरा त्वया ॥२६० भूयश्च तं वरमिमं मत्तो गृणीष्व सुव्रत । प्रसन्नवदनो भूत्वा त्वमेकाग्रमनाः शण २६१ अश्यमेधसहस्रस्य वाजपेयशलस्य च । प्रजापते मत्प्रसादात्फलभागी भधिष्यसि ।।२६२ रथ आदि के निवासस्थान में, पुरानी वाटिका और भवनों में, पंच-तत्रयों में, भूतों में, दिशा विदिशा में, चन्द्र सूर्य की रश्मि में, रसातल में और इन स्थानो के अ-तिक्त भी अवस्थित है, वे सूक्ष्म, स्थूल, कुश, हस्व आदि सब आप ही हैं । आपको बारम्बार नमस्कार है ।२७६-२८३ हे देव ! आप सर्वं है, सवंग हैं, सर्वभूतपति है और सब जीवों के अन्तरात्मा है. इसी से हमने आपको निमन्त्रित नहीं किया । विविध दक्षिणावले यज्ञ में आप ही यजनीय होते हैं और आप ही सब के कर्ता हैं, इसी से आप निमन्त्रित नही हुये । अथवा देव ! आपकी सूक्ष्म माया से हम भ्रान्त हो गये, इसी क रण आपको निमन्त्रण नहीं दिया । देवेश ! प्रसन्न हो । आप ही हमारी शरण है । ‘आप ही हमारी गति और प्रतिष्ठा है । आपके अतिरिक्त हमारी दूसरी गति नही है। इस प्रकार महादेव की स्तुति करके दक्ष प्रजापति चुप हो गये । इस स्तुति से प्रसन्न होकर महादेवजी ने भी दक्ष से . कहा- हे सुब्रत दक्ष ! तुम्हारी इस स्तुति से हम प्रसन्न हुए अधिक कहने से वया, तुम मेरे समीप जाओगे ।२८४२८है। वाक्यविशारद त्रिलोकीपति महादेव ने दक्ष को इस प्रकार सान्त्वना देकर फिर स्पष्ट रूप से कहा-दक्ष ! इस यज्ञ के विन्न के सम्बन्ध में तुम्हे क्रोध नहीं चहिये । मैने ही इस यज्ञ का करना विध्वंस किया है, किसी दूसरे ने नहीं । यह तुमने स्वय देखा है । सुव्रत ! तुम हमसे फिर यह धर ग्रहण करो । तुम प्रसन्न वदन होकर एकाग्र मन से सुनो ।२६०-२६२ प्रजापति ! तुम हमारे प्रसाद से हजार अश्वमेष और