पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२५३

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

२३४ न ब्रह्मा न च गोविंदः पुराणऋषयो न च । माहात्म्यं वेदितुं शक्ता याथातथ्येन ते शिव ।।२६e या मूर्तयः सुसूक्ष्मास्ते न सहा' यान्ति दर्शनम् । ताभिर्मा सततं रक्ष पिता पुत्रमिवौरसम् ॥२७० रक्ष मां रक्षणीयोऽहं तवानघ नमोऽस्तुते । भक्तानुकम्पी भगवान्भक्तश्चाहं सदा त्वयि २७१ यः सहस्राण्यनेकानि पुंसामाहृत्य दुर्दशः । तिष्ठत्येकः समुद्रान्ते स मे गोप्ताऽस्तु नित्यशः ॥२७२ यं विनिद्रा जितश्वासः सत्त्वस्थाः समद्रेशनः। ज्योतिः पश्यन्ति युञ्जानास्तस्मै योगात्मने नमः ।२७३ संभक्ष्य सर्वभूतानि युगान्ते समुपस्थिते । यः शेते जलमध्यस्थस्तं प्रपद्येऽप्सु शायिनम् ॥२७४ प्रविश्य वदने राहोर्यः सोमं ग्रसते निशि। ग्रसत्यर्के च स्वर्भानुर्भूत्वा सोमाग्निरेव च ‘।।२७५ येऽङ्गुष्ठमात्राः पुरुषा देहस्थाः सर्वदेहिनाम् । रक्षन्तु ते हि मां नित्यं नित्यामाप्याययन्तु माम् ॥२७६ ये चाप्युत्पतिता गर्भादधोभागगताश्च ये । तेषां स्वहाः स्वधाश्चैव अप्नुवन्तु स्वदन्तु च ॥२७७ ये न रोदन्ति देहस्थाः प्राणिनो रोदयन्ति च । हर्षयन्ति च हृष्यन्ति नमस्तेभ्यस्तु नित्यशः ॥२७८ ये समुद्रे नदीदुर्गे पर्वतेषु गुहासु च । वृक्षमूलेषु गोष्ठेषु कान्तारगहनेषु च २७६ चतुष्पथेषु रथ्यासु चत्वरेषु सभासु च । (+हस्त्यश्वरथशालासु जीर्णाद्यानालयेषु च २६० माहात्म्य को ठीक तरह से नही जान पाते हैं । हे शिव ! आपकी जो सूक्ष्म मूतियाँ हैं वे हमारे दृष्टिपथ में नहीं आती हैं । उनसे आप हमारी सदा रक्षा उसी प्रकार करे , जिस प्रकार कि, पिता अपने औरस पुत्र की रक्षा करता है ।२६८२७० अनघ ! हमारी रक्षा करें। हम सदा रक्षणीय हैं। आपको । नमस्कार है आप भक्तो पर दया करने वाले भगवान् है और हम आपके भक्त हैं। आप हजारों पुरुषों को लेकर समुद्रगर्भ में एकान्त शयन करते है, ऐसे आप हमारे रक्षक हों । निद्राविहीन होकर निश्वास वायु को जीतने वाले सत्त्वस्थ समदर्शी योगिगण आपकी ज्योति को देखते हैं उसी योगात्मा को प्रणाम है ।३७१-२७३। जो प्रलय उपस्थित होने पर सब जीवों का भक्षण कर जल के मध्य स्थित होकर शयन करते हैं उन्ही जलशायी को प्रणाम है । जो राहु के शरीर में प्रवेश कर रात को सोम का ग्रास करते है और स्वर्भानु एवं सोमाग्नि होकर सूर्य को निगलते हैं तथा जो अंगुष्ठ मात्र पुरुष देहधारियों की देह में रहते हैं, वे हमारी सदा रक्षा करें और हमें तृप्त करें ।२७४-२७६ जो अङ्गुष्ठमात्र पुरुष गर्भ से उत्पन्न हैं, स्वाहा और स्वघा उन्हें तृप्त करेउनके लिये रुचिकर हो । जो देहस्थ होकर भी स्वयं नही रोते हैं, किन्तु प्राणियों को रुलाते हैं, स्वय हृष्ट नही होतेकिन्तु प्राणियो को प्रसन्न करते हैं, उन्हें नित्य प्रणाम है ।२७७२७८। जो समुद्र में, नदी-दुर्ग मे पर्वत में, गुहा में, वृक्ष मूल में, गोष्ठ में, गहन कानन में, चतुष्पथ में, गली में, चबूतरे पर, सभा में, हाथी-घोड़ा +धनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थः क. ख. घ पुस्तकेषु नास्ति ।