पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२४३

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२२४ वयुपुराणम् ततः किलकिलाशब्द आकाशं पूरयन्निव । तेन शब्देन महता त्रस्ताः सर्वे दिवौकसः। १४४ पर्वताश्च व्यशीर्यन्त कम्पते च वसुंधरा। मेरुश्व पूर्णते विप्राः क्षुभ्यन्ते वरुणालयाः १४५ अग्नयो नैव दीप्यन्ते न च दीप्यति भास्करः। ग्रह नैव प्रकाशते नक्षत्राणि न तारकाः ।।१४६ ऋषयो नाभ्यभाषन्त न देव न च दानवाः। एवं हि तिमिरीभूते निर्वहन्ति विमानिताः १४७ सिंहनादं प्रमुञ्चन्ति घोररूपा महाबलाः । प्रभञ्जन्ते परे घोरा यूपानुत्पाटयन्ति च १४८ प्रमर्दन्ति तथा चान्ये विनृत्यन्ति तथाऽपरे। आथावन्ति प्रधावन्ति वायुवेगा मनोजवाः ॥१४e चूण्र्यन्ते यज्ञपात्राणि यागस्याऽऽयतनानि च । शीर्यमाणानि दृश्यन्ते तारा इव नभस्तलात् १५० दिव्यान्नपानभक्षाणां राशयः पर्वतोपमाः । क्षीरनद्यस्तथा चान्या घतपायसकर्दमाः ॥ । मधुमण्डोदका विव्याः खण्डशर्करवालुकाः ॥१५१ षड्रसन्निवहन्यन्या गुडकुल्या मनोरमाः। उच्चावचानि मांसानि भक्ष्याणि विविधानि च ॥१५२ पानकानि च दिव्यानि लेह्यां चोष्यं तथापरे । भुञ्जते विविधैर्वचनैवलुष्ठन्ति(४क्षिपन्ति च ॥१५३ किलकारियों से आकाश गूज उठा और उस विकट शब्द से सभी देवगण भयभीत हो गये । पहाड़ टुकड़े-टुकड़े हो गये, धरती कांप उठी, मेरु चंचल हो गया, समुद्र क्षुब्ध हो गये, अग्नि दीप्तिहीन, सूयं तेजोहीन और ग्रह-नक्षत्र तारकादि प्रकाशहीन हो गये ।१४४१४६। यज्ञ में उपस्थित ऋषि, देव, दानव आदि चुप हो गये, घना अन्धकार छ गया और विमानित उन रुद्र गणो ने सब को कष्ट देना प्रारम्भ किया । वे घोर रूप महा बली रुद्रगण सिंहनाद करने लगे । किसी ने यज्ञाणार को उखाड़ फेंका, तो कोई यज्ञयूप को पीड़ित करने लगा, तो कोई ताण्डव करने लगा । वायु और मन के तुल्य वेग धारण कर कितने तो कूदने ओर दौड़ने लगे ।१४७१४६ कितनो ने यज्ञपात्रों को और यज्ञशालाओं को तोड़मरोड़ दिया, इससे वह यज्ञभूमि उसी प्रकार दिखाई पड़ने लगी, जिस प्रकार कि आकाश में तारागण विखरे दीख पड़ते हैं ।१५०। उन लोगों ने दिव्य भक्ष्य अन्नों के ढेर को, जलराशि को, क्षीरनदी को, कीचड की तरह पड़े हुये थी और उसी तरह पड़ी हुई खीर को, दिव्य मधु और मण्डोदक को, वालुकाराशि की तरह चीनी को, षड्रसवाहिनी असंख्य गुडकुल्या ( बड़े-बड़े नाद ) को, मांस के छोटे-बड़े ढेर को, विविध प्रकार के भुख्य वस्तुओं को, ढ़िया से वढिया पीने की चीजों को और चाटने चूसनेकी चीजों को अपने’ नाना प्रकार के मुखों से खना प्रारम्भ कर दिया । उन्होने कुछ को फेंक दिया और कुछ को उलट दिया ।१५१-१५३। रुद्र के कोप से उत्पन्न वे विशाल शरीर xघनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थः क. पुस्तके नास्ति ।