पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२४२

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त्रिंशोऽध्यायः २२३ ।।१३६ नानकुसुममूर्धानं नानागन्धानुलेपनम् । नानारत्नविचित्राङ्गी नामाभरणभूषितम् १३३ कणकारस्रजं दीप्तं क्रोधादुद्भ्रान्तलोचनम् । क्वचिन्नृत्यति चित्राङ्गं क्वचिद्वदति सुस्वरम् ॥१३४ बवचिद्धचायति युक्तात्मा क्वचित्स्थूलं प्रमार्जति । क्वचिद्गायति विश्वात्म क्वचिद्रौति मुहुर्मुहः ॥१३५ ज्ञानं वैराग्यमैश्वर्यं तपः सत्यं क्षमा धृतिः । प्रभुत्वमात्मसंबोधो ह्यधिष्ठानगुणैर्युतः जानुभ्यामवनं गत्वा प्रणतः प्राञ्जलिः स्थितः । आज्ञापय स्वं देवेश कि कार्यं करवाणि ते ॥१३७ तमुवाचाऽऽक्षिप मखं दक्षस्येह महेश्वरः । देवस्यानुमतिं श्रुत्वा वीरभद्रो महाबलः । प्रणम्य शिरशा पादौ देवेशस्य उमापतेः १३८ ततो बन्धात्प्रमुक्तेन सहेनेवेह लीलया । देव्या मन्युकृतं मत्वा हतो दक्षस्य स क्रतुः १३६ मन्युना च महाभीमा भद्रकाली महेश्वरी । आत्मनः सर्वसाक्षित्वे तेन सार्ध सहानुगा १४० स एष भगवन्क्रुद्धः प्रेतावासकृतालयः। वीरभद्र इति ख्यातो देव्या मन्युप्रमार्जकः १४१ सोऽसृजद्रोमकूपेभ्यो रौद्रान्नाम गणेश्वरान् । रुद्रानुगा महावीर्या रुद्रवीर्यपराक्रमः १४२ रुद्रस्यानुचराः सर्वे सर्वे रुद्रसमप्रभाः । ते निपेतुस्ततस्तूर्णं शतशोऽथ सहस्रशः १४३ रंग-बिरंगे फूलों से शिर को सजाये हुये, बहुविध गन्ध-चन्दन को लगाये हुये, विविध रत्नों से और कितने ही प्रकार के आभरणों से भूषित था ।१३१-१३३। वह कनेर की माला पहने हुये था और क्रोध से उसकी अखं नाच रही थी । कभी वह विचित्र भावः भी से नाच उठता था तो कभी मधुर स्वर में बोल उठता था, कभी वह योगावलम्वन करके ध्यान करता था, तो कभी मोटी चीजों को इधर-उधर हटाता था, कभी वह विश्वरमा गाता था, तो कभी सिसकियाँ भरता था ।१३४-१३५। ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, तप, सत्य, क्षमा, धृति, प्रभुत्व, आत्मसंबोव और अधिष्ठान गुण से युक्त उसने भूमि पर घुटने टेक दिये और हाथ जोड़कर बोला –देवेश ! आज्ञा दीजिये कि, मैं कोन कार्य कर्ता १३६॥ आपका सा ।-१३७ महदेव ने कह-तुम दक्ष के यज्ञ का विध्वंस करो । महादेव की आज्ञा पाकर वह महबली वीरभद्र देवेश उमपति के चरणों की वन्दना करके पिञ्जरमुक्त सिंह की तरह लीलापूर्वक यह सोचता हुआ चला कि, ‘भगवती क्रुद्ध हैं । अतः दक्ष के उस यज्ञ को विनष्ट ही समझना चाहिये, उसी समय देवी के क्रघ से एक महाभयङ्कर माहेश्वरी भद्रकाली उत्पन्न हुई, जो साथी की भ्रति वीरभद्र के साथ चली । १३८-१४० प्रेतावास में रहने वाले और उम के क्रोध कारण को दूर करने वाले भगवान् वीरभद्र ने अपने रोमकूप से रौद्र नामक असंख्य गणेश्वरों की सृष्टि की। वे रुद्र के अनुगामी, महाबली, रुद्र के तुल्य पराक्रमी, रुद्र के अनुचर और रुद्र के तुल्य कान्ति वाले थे । वे सौ-सौ श्रीः हजारहजार की संख्या में दल बाँध कर शीघ्र ही यज्ञ दिशा की ओर दौड़ पड़े ।१४१-१४३। उनकी