पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२४४

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त्रिशोऽध्यायः २२५ रुद्रकोपान्महाकायाः कालाग्निसदृशोपमाः । सुरसैन्यानि भर्दन्तो भीषयन्ति ) च सर्वशः। क्रीडन्ति विविधाकाराश्चिक्षिपुः सुरयोषितः १५४ रुद्रकोपप्रयुक्तास्तु सर्वदेवैः सुरक्षितम् । तं यज्ञमहञ्शीघ्र रुद्रकल्पाः समीपतः ॥१५५ चक्रुरन्ये तथा नादयन्सर्वभूतभयंकरान् । छित्व शिरोऽन्ये यज्ञस्य विनदति भयंकराः ॥१५६ दक्षो दक्षपतिश्चैव देवो यज्ञपतिस्तथा । मृगरूपेण चऽऽकाशे प्रपलायितुमारभत् १५७ वीरभद्रोऽप्रमेयात्मा ज्ञात्वा तस्य बलं तद। अन्तरिक्षगतस्याऽऽशु चिच्छेदास्य शिरो महन् १५८ दक्षः प्रजापतिश्चैव नष्टः संभ्रान्तचेतनः। क्रुद्धेन वीरभद्रेण शिरः पादेन पीडितम् ।। जराभिभूततीव्रात्मा निपपात महीतले ॥१५६ त्रयस्त्रिशद्देवतानां तः कोटयो विमलात्मिकाः। पाशेनाग्निबलेनाऽऽशु बद्धाः सहबलेन च ॥१६० ततो जग्मुर्महात्मानं सर्वे देवा महाबलम् । प्रसीद भगवन्रुद्र भृत्यानां मा क्रुधः प्रभो १६१ ततो ब्रह्मादयो देवा दक्षश्चैव प्रजापतिः । ऊचुः प्राञ्जलयो भूत्वा कथ्यतां को भवानिति ॥१६२ वीरभद्र उवाच न च देवो न चाऽऽदित्यो न च भोक्तुमिहाऽऽगतः । नैव द्रष्टुं हि देवेन्द्रान्न च कौतूहलान्वितः ॥१६३ वाले, कालाग्नि सदृश रुद्रगण देव सेना को छेदते हुए डराने लगे और विविध देह धारण कर क्रीड़ा करते हुए देवपनियों को भी धसीट ।१५४। रुद्रकोपोत्पन्न उन रुद्र तुल्य गणों ने देवों से रक्षित उस यज्ञ को उनके सामने ही नष्ट कर दिया । उनमें कुछ सब को शास उत्पन्न करंने वाले भयङ्कर शब्द करने लगे और किसी ने यक्ष के सिर को काट कर भयङ्कर चीत्कार किया ।१५५-१५६। इस ध्वंस लोला में यज्ञपति दक्ष मृग रूप धारण कर आकाश की ओर भागे; किन्तु अप्रमेयात्मा वीरभद्र ने दक्ष की शक्ति को समझ लिया और आकाश में ही जाकर उनके सिर को काट लिया ।१५७-१५८। दक्ष प्रजापति नष्ट हो गये, उनकी चेतना विलुप्त हो गई और द्ध वीरभद्र ने उनके सिर को पैरों से रोद दिया। वृद्ध दक्ष प्रजापति पृथ्वी पर लोट गये ।१५६। इषर विमल आरमा वाले हैंतीस करोड़ देवता भी अग्नि तुल्य प्रदीप्त दृढ़ पाश में बँध गये । तव वे सब देवता महाबली महात्मा वीरभद्र के पास गये और बोले—भगवन् ! रुद्र प्रसन्न हो जाये । प्रभु ! दासों पर क्रोध मत करें। तब ब्रह्मादि देवता और दक्ष प्रजापति हाथ जोड़ कर बोले-महाराज, आप कौन है ? ।१६०-१६२ चीरभद्र बोले-न हम | देव हैं न आ आदित्य है, न भोजन की इच्छा से आये हैं और न कुतूहलवश । फा०-२६