पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२१४

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सप्तविशोऽध्यायः १६५ २१ ततोऽभिसृष्टास्तनव एषां नाम्नां स्वयंभुवा । सूर्यो मही जलं वह्निर्वायुराकाशमेव च ॥१८६ दीक्षितो ब्राह्मणश्चन्द्र इत्येते ब्रह्मधातवः । तेषु पूज्यश्च वन्द्यः स्याद्धस्तान्न हिनस्ति वै ॥१e ततोऽब्रवीत्पुनर्बह्मा तं देवं नीललोहितम् । द्वितीयं नामधेयं ते मया प्रोक्तं भवति यत् । एतस्याऽऽपो द्वितीया ते तनुर्नाम्ना भविष्यति २० इत्युक्ते यस्थिरं तस्य शरीरस्थं रसात्मकम् । तद्विवेश ततस्तोयं तस्मादपो भवः स्मृतः यस्माद्भवन्ति भूतानि ताभ्यस्ता भावयन्ति च। भवनङ्कवनाच्चैव भूतानां संभवः स्मृतः ।।२२ तस्मान्मूत्रं पुरीषं च नाप्सु कुर्वीत सर्वदा । न स्नाये (य)दषु नग्नश्च न निष्ठीवेत्कदाचन २३ मैथुनं नैव सेवेत शिरःस्नानं च वर्जयेत् । न प्रीतः परिचक्षीत वह संस्थितोऽपि वा २४ मेध्यामेध्यशरीरत्वान्नैव दुष्यन्त्यपः क्वचित् । विवर्णरसगन्धाश्व अल्पTा परिवर्जयेत् २५ अपां योनिः समुद्रश्च तस्मात्तं कामयन्ति ताः। मेध्याश्चैवाभूताश्चैव भवन्ति प्राप्य सागरम् ॥२६ तस्मादपो न रुन्धीत समुद्र कामयन्ति तः। न हिनस्ति भवो देवः सदैवं योऽप्सु वर्तते ।२७ ततोऽब्रवीत्पुनीह्मा तं देवं कृष्णलोहितम् । शर्वस्त्वमिति यन्नाम तृतीयं समुदाहृतम् । तस्य भूमिस्तृतीया तु तनुर्नाम्ना भवत्वियम् २६ निर्देश कर दें । तब स्वयम्भू ने सूर्य, मही, जल, वह्नि, वायु, आकाश, दीक्षित ब्राह्मण और चन्द्र आदि आठ नाम के लिये आठ मूतियों की सृष्टि की ये मूतियाँ ब्रह्मा रूप है । इन मूतियों में जो स्द्र की पूजा या वन्दना करते है, रुद्रदेवता उनकी हिंसा नहीं करते है ।१७१८ इसवे बाद ब्रह्मा ने नीललोहित से कहा आपका दूसरा नाम मैंने भव रखा है, इसलिये आपका दूसरा शरीर जल होगा । इतना कहने पर उनके शरीर में स्थित जो रस रूप जल था, उसमे जल प्रवेश कर गया। तब जल भी भव मूfत हो गया २०-२ । जल से सम्पूर्ण भूतसमूह उत्पन्न होता है और वह सबको उत्पन्न करता है, अतः भवनभावन सम्बन्ध होने के कारण जल जीवों या सम्भव नहलाता है ।२२। इसलिये जल में मल-मूत्र त्याग नही करना चाहिये, न थूकना चाहिये और न नग्न होकर स्नान ही करना चाहिये ।२३। जल में मैथुन न करे और न शिरःस्नान (उलटा स्नान) करे । स्थिर या वहते हुये जल के प्रति कोई अप्रीतिजनक बात भी नहीं कहनी चाहिये । पवित्र या अपवित्र शरीर के स्पर्श से जल कभी भी दूपित नहीं होता है; चिन्तु मटमैला, विरस, दुर्गन्धित और थोड़े जल को उपयोग में नही लाना चाहिये ।२४-२५। समुद्र जल का उत्पत्तिस्थान है। इस लिये जलराशि समुद्र की कामना करती है । जल समुद को प्राप्त कर पवित्र और अमृतमय हो जाता है । बहते हुये जल को रोकना मही चाहिये; क्योकि वह समुद्र में जाना चाहता है। इस प्रकार जलतत्त्व को जानकर जो जल में रहता है, उसकी हिंसा भव देवता नहीं करते है २६२७। इसके बाद ब्रह्मा ने फिर नीललोहित से कहा- आपका