पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२०३

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१८४ वायुपुराणैर्भ ६२ ६३ बाढं शृणु त्वं हेमाभ पद्मयोने वचो मम । प्रसादो यस्त्वया लव्ध ईश्वरापुत्रलिप्सया ६० तं तथा सफलं श्रुत्वा मत्तोऽभूदनृणो भवान् । चतुविधानि भूतानि सृज त्वं विसृजस्व च ॥६१ अवाप्य संज्ञां गोविंदात्पद्मयोनिः पितामहः । प्रजा त्रष्टुमनास्तेपे तप उग्रं ततो महत् तस्यैवं तप्यमानस्य न किंचित्समवर्तत । ततो दीर्गुण फालेन दुःखस्नोधो व्यवर्धत सन(तत्नो)धविष्टनेत्राभ्यामपतन्नश्रुबिन्दवः । ततस्तेभ्योऽश्रुबिन्दुभ्यो वातपित्तकफात्मकाः ॥६४ महाभोगा महासत्त्वाः स्वस्तिकैरभ्यलंकृताः। प्रकीर्णकेशाः सस्ते प्रादुर्भूता महविषाः ६५ सपस्तथाऽग्रजान्दृष्ट्वा प्रहाऽऽत्मानमनिन्दत । अहो धिक्तपसr महा“ फलमीदृशकं यदि । लोकवैनाशिकी जज्ञे आदावेव प्रजा मम ६६ तस्य तीनाऽभवन्मूच्छं नोधामर्षसमुद्भवा । मूच्छंभितापेन तव जहौ प्राणान्प्रजापतिः ॥६७ तस्याप्रतिमवीर्यस्य देहात्कारुण्यपूर्वकम् । आत्मैकादश ते रुद्राः प्रोक्ता रुतदस्तथा । रोदनात्खलु स्त्रास्ते रुद्रत्वं तेन तेषु तत् ६८ ये रुद्रः खलु ते प्राणा ये प्राणास्ते तदात्मकाः । प्राणाः प्राणभृतां ज्ञेयाः सर्वभूतेष्ववस्थिताः ॥६€ अत्युग्रस्य महत्त्वस्य साधुना चरितस्य च । तस्य प्राणान्ददौ भूयस्त्रिशूली नीललोहितः ललाटात्पद्मयोनेस्तु प्रभुरेकादशात्मकः ७० सा कार्य करें ?'r५७-५९। विष्णु बोले-स्वर्णवर्ण कमलयोनि ब्रह्मा ! अच्छा, आप मेरे वात सुनिये । पुत्रभि लाषी होकर आपने जो महादेव से वरदान प्राप्त किया है, उसे सफल कीजिये और ऋणमुक्त होइये । आप चारों प्रकार से जीवों को सृष्टि और उनका विनाश कीजिये' 1६०-६१। पद्मयोनि पितामह ब्रह्मा गोविन्द से ज्ञान प्राप्त कर प्रजा की सृष्टि करने के लिये अत्यन्त उग्र तप करने लगे । इस प्रकार दीर्घकाल तक तपस्या करने पर भी कुछ नहीं हुआ, तब उन्हें दुःख हुआ । उस समय उनके छोघ-सम्पन्न नेत्रों से अध्रुविन्दु छलक पड़े । उन अश्रुबिन्दुओं से वातपित्तकफारमक महाविष वाले सर्प उत्पन्न हुये ।६२-६४। वे सर्प बड़े-बड़े फन धारण किये हुये थे, स्वस्तिक और लम्बे केशों से समलंकृत एवं महासत्त्व थे। सबसे पहले सर्प को ही उत्पन्न होते देखकर ब्रह्मा अपन निन्दा करने लगे कि मेरी तपस्या को धिक्कार है जिसका फल ऐसा हुआ कि प्रारम्भ में ही मैंने लोकविनाशकरक जीवों की ही सृष्टि की 1६५-६६। लोध से उन्हें भयङ्कर सूच् हो गयी । मूछतावस्था में ही प्रजापति ने अपना प्राण त्याग दिया। तब अनुपमेय पराक्रमी ब्रह्मा की वेह से करुणापूर्वक रोते हुये एक साथ एकादश रुद्र उत्पन्न हुये। रोने के ही कारण वे रुद्र हुये और उन्होने रुद्रत्व प्राप्त किया । जो रुद्र है, वे ही प्राण हैं और जो प्राण है, वे ही रुद्र है। प्राणधारी सभी शंतो में वे ही प्राण