पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२०२

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पञ्चविशोऽध्यायः १८३ मया च व्याहृता यस्मात्त्वं चैव समुपस्थिता । महाव्याहृतिरित्येव नाम ते त्रिचरिष्यसि ।।५० उत्थिता च शिरो भित्वा सावित्री तेन चोच्यते । एकानंशानु यस्मृत्वनेकशा भविष्यसि ॥५१ गौणानि तावदेतानि कर्मजन्यपराणि च । नानि ते भविष्यन्ति मत्प्रसादाच्छुभानने ५२ ततस्तौ पीडयमानौ तु वरसेनमययाचताम् । अनावृतं नौ मरणं पुत्रत्वं च भवेत्तव ५३ तथेत्युक्त्वा ततस्तूर्णस्स्नयद्यमसदनम् । अनयरकैटभं विष्णुजिष्णुभाष्यनयन्मधुम् ५४ एवं तौ निहतौ दैत्यौ विष्णुना जिष्णुन सह । प्रतेन ब्रह्मणा चथ लोकानां हितकाम्यया ॥५५ पुत्रत्वमीशेन यथा ह्यात्मा दत्ता निबोधत । विष्णुना जिष्णुना सार्ध मधुकैटभयोरतथा । संपराये व्यतिक्रान्ते ब्रह्मा विष्णुमभाषत ५६ अद्य वर्षशतं पूर्णं समयः प्रत्युपस्थितः। संक्षेपसंप्लवं घोरं स्वस्थानं यामि वाष्यहम्. ।।५७ स तस्य वचसा देवः संहारमकरोत्तदt । महीं निस्थावरां कृत्वा प्रकृतिस्थांश्च जङ्गमान् ५८ यदि गोविन्द भद्रं ते क्षिप्तं ते यादसां प्रति । कूहि यत्करणीयं स्यान्मया ते लक्ष्णुिवर्धनः ॥५६ आयी हो इसलिये तुम्हारा एक नाम महाव्याहृति होगा ।५०। तुम हमारे सिर को भेदकर उत्पन्न हुई हो। इसलिये सावित्री भी कही जाओगी । एकानंश होने के कारण तुम्हारा नम' अनेकांशा भी होगा ५१॥ सुमुखि ! इतने तो तुम्हारे गीण नाम हुये किन्तु हमारे प्रसाद से तुम्हारे कर्मजनित और भी असंख्य नाम होंगे। इधर युद्ध करते-करते वे दोनों दैरय थक गये छोर उन दोनों ने विष्णुजिष्णु से वर माँगा कि, खुले स्थान में हमारी मृत्यु हो एवं आप दोनों हमारे पुत्र हों । .'ऐसा ही हो’ कहकर विष्णु ने कटभू को यमसदन पहुंचा दिया और जिष्णु ने भी मधु को मार डाला । इस प्रकार विष्णु-जिष्णु के द्वारा दोनों देत्यों के मारे जाने पर प्रह्मा प्रसन्न होकर संसार की हितकामन में रत हो गये ।१२-५५। अब ईश्वर ने जिस प्रकार पुत्र रूप से आत्मदान किया, उसे सुनिये । विष्णु-जिष्णु के साथ जब मधुकैटभ का युद्ध समाप्त हो गया, तब ब्रह्मा ने विष्णु , से कहा ।५६। आज सौ वर्ष पूरे हो गये और समय भी आ गया । आप इस घोर संप्लव को समेट लें। हम भी अपने स्थान को जाते है । विष्णु ने ब्रह्मा के कहने पर संप्लव का संहार कर और पृथ्वी दिया को स्थावरविहीन करके जंगलों को प्रकृतिस्य कर दिया । फिर ब्रह्म बोने–गोविन्द ! आपका कल्याण हो । आपने समुद्र को शत्र ही सीमित कर दिया। लक्ष्मीत्रर्जुन, कहिये हम आपत्र कौन

  • अत्र स्थले विष्णुरुवाचेति घ. पुस्तके ।

१ –यह मूल पाठ भ्रष्ट जान पड़ता है-एकानंशात्तु के स्थान पर ‘नैकांशतु होना चाहिये i जिसका अयं है एकांश न होने के कारण। इस प्रकार अर्थ संगत हो जाता है ।