१८० । २१ २२ प्रसादमतुलं कृत्वा ब्रह्मणस्तादृशं पुरा । विष्णु पुनरुवाचेदं ददामि च वरं तव १८ स होवाच महाभागो विष्णुर्भवमिदं वचः। सर्वमेतत्कृतं देवं परितुष्टोऽसि मे यदि ।। त्वयि ते सुप्रतिष्ठाऽस्तु भक्तिरस्खुदवाहन ॥१६ एवमुक्तस्ततो देवः समभाषत केशवम् । विष्णो शृणु यथा देव प्रीतोऽहं तव शाश्वत ।।२० प्रकाशं चाप्रकाशं च जङ्गमं स्थावरं च यत् । विश्वरूपमिदं सर्वं रुद्रनारायणात्मकम् अहमग्निर्भवान्सोमो भवान्रात्रिरहं दिनम् । भवानृतमहं सत्यं भवान्क्रतुरहं फलम् भवान्खानमहं नेयं यज्जपित्वा सदा जनाः। मां जिशन्ति त्वयि प्रोते जनाः सुकृतकारिणः । आवाभ्यां सहिता चैव गतिर्नान्या युगक्षये आत्मानं प्रकृत विद्धि मां विद्धि पुरुषं शिवम् । भवानर्धशरीरं मे त्वहं तव तथैव च वामपाश्र्वे सहन्मह' श्यामं श्रीवत्सलक्षणम् । त्वं च वामेतरं पाश्र्वे त्वहं वे नलिलोहितः २५ त्वं च ते हृदयं विष्णो तव चाहं हृदि स्थितः । भवान्सर्वस्य कार्यस्य कर्ताऽहमधिदैवतम् ॥२६ तदेहि स्वस्ति ते वत्स गमिष्याम्यम्बुदप्रभ । एवमुक्त्वा गतो विष्णोर्देवोऽन्तर्धानमीश्वरः ।२७ ततः सोऽन्तहिते देवे संप्रहृष्टस्तदा पुनः । अशेत शयने भूयः प्रविश्यान्तर्जले हरिः तं पद्मं पद्मगर्भाभं पक्षः पमसंभवः। संप्रहृष्टमना ब्रह्मा भेजे ब्राह्म तदासनम् २६ २३ ५२४ २६ ‘तुमको भी वर पुंगा । महाभाग विष्णु यह सुनकर शिव से बोले-'देव ! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तो आपने मेरे लिये सब कुछ कर दिया । मेघवाहन ! तुममें मेरी अचल भक्ति रहे । णकर इन बातों को सुनकर फिर केशव से बोले-१८-१६१ विष्णो ! देव ! शाश्वत ! सुनो. मेरी जैसी तुम्हारे ऊपर प्रीति है । प्रकाश, अप्रकाण, जङ्गम, स्थावर अथवा यह सारा विश्व-रूप रुद्र और नारायणमय है ।२०-२१। मैं अग्नि हूँ तुम सोम हो, तुम रात्रि और मैं दिन दें । तुम ऋत हो मैं सत्य, सुम यश ओर मै फल हुं । तुम ज्ञान हो तो मैं रॉय हूँ। सुकृत करने वाले जन तुम्हारा जपकर, सुमको प्रसन्न कर मुसमें भी प्रविष्ट हो जाते हैं । युगक्षय काल में हम दोनों को छोड़कर दूसरी कोई गति मही ।२२-२३। तुम अपने को प्रकृति समझो और मुझे पूरुष णिव । तुम जिस प्रकर मेरे आधे शरीर हो, उसी प्रकार में भी तुम्हारा आधा शरीर हुँ । तुम हमारे महान् श्रीवत्सपदलक्षण श्यामल वाम पर्व हो और मै नीललोहित दक्षिण पाश्वं हूं। विष्णो ! तुम मेरे हृदय हो और मैं तुम्हरे हृदय में स्थिर हुँ । तुम सभी कार्यों के कर्ता और हम कार्याधिष्ठित देवता हैं ।२४२६॥ वत्स ! जलदाभ ! तुम्हारा व ल्याण हो। मैं अव जाता हूँ ।" यह कहकर देवाधिदेव महादेव अन्तद्धन हो गये । महादेव जी के चले जाने पर प्रसन्न होकर विष्णु भगवान् फिर शयन करने के लिये जल में घुस गये २७ २८ तव पक्षपद्मजन्मा ब्रह्म भी प्रसन्न होकर उस पझगर्भ की। आभावले उपयुक्त पझासन पर