पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१९७

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१७८ अथ पञ्चविंशोऽध्यायः नथुकैटभोeपक्षिविनाशवर्णनम् तत उवाच १ ।।२ ॥३ ।।४ संपिबन्निव तौ दृष्ट्वा मधुपिङ्गायतेक्षणः । प्रहृष्टवदनोऽत्यर्थमभवच्च स्वकीर्तनात् उमापतिविरूपाक्षो दक्षयज्ञविनाशनः । पिनाकी खण्डपरशुर्भूतभ्रान्तस्त्रिलोचनः ततः स भगवान्देवः श्रुत्वा वाक्यामृतं तयोः। जानन्नपि महाभागः प्रीतिपूर्वमथाब्रवीत् कौ भवन्तौ महात्मानौ परस्परहितैषिणौ । समेतावस्बुजाभाक्षौ तस्मिन्घोरे जलप्लवे तावूचतुर्महात्मानौ संनिरीक्ष्य परस्परम् । भगवनिंझच तथ्येन विज्ञातेन त्वया विभो । कुत्र वा सुखमनन्त्यमिच्छचरभृते त्वया

  • तयोस्तद्वचनं श्रुत्वा ह्यभिनन्धनुमान्य च । उवाच भगवान्देवो मधुरलक्ष्णया गिरा ।

भो भो हिरण्यगर्भ त्य त्वां च कृष्ण बदाम्यहम् ॥५ ६ अध्याय २५ मधुकैटभ की उत्पत्ति और विनाश सूतजी बोले-मधु की भाँति पिङ्गल और वड़ी बड़ी आंखों वाले विरूपाक्ष, दक्षयज्ञ विनाशक, पिनाकी, खण्डपरशु, भूतप्रान्त, त्रिलोचन, पहले तो इस प्रकार देखते थे मानो वे दोनों देव्रताओं को पी जायेंगे परन्तु पीछे अपनी स्तुति सुनकर उनको अपर हर्ष हुआ। उन देवो को सरस स्तुति-वाणी को सुनकर सब कुछ जानते हुये भी अनजान की भाँति प्रेमपूर्वक वोले—१-३। कमल के समान सुन्दर नेत्रों वाले आय दोनों महत्मा कौन है जो उस घोर प्रलय समुद्र मे एक दूसरे को हिताकांक्षा से यहाँ प्रकट हुये हैं । यह सुनकर वे दोनों एक दूसरे की ओर देखकर बोले--भगवन् ! विभो ! सब रहस्य को जानते हुये भी आप क्यों इस प्रकार पूछ रहे है ? आपके विना कहाँ पर हम अत्यन्त सुख की आशा कर सकते है (४-५। उन दोनों की विनीत वाणी को सुनकर भगवान् शंकर ने उनका अभिनन्दन किया और उनकी सराहना करते हुये मधुर

  • इदमर्घ नास्ति क. पुस्तके ।