पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१९६

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चंतुविंशोऽध्याये ७७ १६६ योगेन त्वां ध्यानिनो नित्ययुक्ता ज्ञात्वा भोगान्संत्यजन्ते पुनस्तान् । येऽन्ये मर्यास्त्वां प्रपन्ना विशुद्धास्ते कर्मभिदव्यभोगान्भजन्ते अप्रमेयस्य तत्त्वस्य यथा विमः स्वशक्तितः। कीतितं तव माहात्म्यमपारं परमात्मनः । शिवो नो भव सर्वत्र योऽसि सोऽसि नमोऽस्तु ते ॥१६७ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते शार्वंस्तवो नाम चतुविशोऽध्यायः ॥२४॥ भोगों का परित्याग कर देते हैं । जो मयं आपका साक्षाकार करके विशुद्ध होते हैं, वे अपने कर्मफल के अनुसार दिव्य भोगों का उपभोग करते हैं १६६आप अप्रमेय तत्व है । अपनी शक्ति से जैसे हमने आपको समझा वैसा ही आपके अपर माहात्म्य का कीर्तन किया। आप हमारे लिये सर्वत्र कल्याण-कारक हों। आप जो हैं, वही है अर्थात् आप अज्ञेय और अप्राप्य हैं आपको नमस्कार है’।१६७ श्री वायुमहापुराण का शर्वस्तव नामक चौबीसव अध्याय समाप्त ।।२४। फा०-२३