पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१९५

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१७ ॥१५६ पद्ममालाकृतोऽणीषं शीर्षण्यं शोभते कथम् । दीप्तिः सूर्यं वपुश्चन्द्रं स्थैर्यं भ्रह्म निलो बले १५५ तक्ष्ण्यमैग्नौ प्रभा चन्द्रे खे शब्दः शैत्यमप्सु च । अक्षरोत्तममिष्प (प)न्दान्गुणानेतान्विदुर्युधाः ॥ १५६ जयो जप्यो महायोगी महादेवो महेश्वरः। पुरेशयो गुप्तवासी खेचरो रजनीचरः १५७ तपोनिधिर्गहगुरुर्नन्दनो नन्दिवर्धनः । हयशीर्यो धराधrत विधाता भूतिवाहनः १५८ बौद्धयो बोधनो नेता धूर्षहो दुष्प्रकम्पकः। वृहदथो भीमकर्मा वृहत्तर्धनंजयः घण्टाप्रियो ध्वजो छपी पताकाध्वजिनीपतिः। वची पट्टिसी शहॅरी पाशहस्तः परश्श्वभृत् ।।१६० अगस्त्यमनघः शूरो देवराजारिमर्दनः । त्वां प्रसाद्य पुरस्माभिंद्वषन्तो निर्हता युधि। १६१ अग्निस्त्वं ऐंथान्सर्वान्पिबन्नेव न तृष्यसे । धागारः प्रसन्नात्मा कामह कामदः प्रियः १६२ ब्रह्मण्यो ब्रह्मचारी च गोघ्नस्त्वं शिष्टपूजितः । वेदनामध्ययः कोशस्त्वया यज्ञः प्रकहिपतः ॥१६३ हव्यं च वेदं बहति वेदोक्तं हर्यवाहनः । प्रीते त्वयि महदेव वयं प्रीत? भवामहे १६४ भवानीशोऽनादिमान्धस्मराशिर्द्रह्मा लोकानां त्वं कर्ता त्वदिसर्गः। सांख्याः प्रकृतिभ्यः परमं त्वां विदित्वऽक्षणध्यानास्ते न मृत्यु दिशन्ति १६५ एवं दुर्द्धर्ष है । पद्ममाला से मण्डित आपके सिर पर पगुड़ी को शोभा ऐसी हो रही है मानो सूर्यमण्डल मे दीप्ति, चन्द्रमा मे वायु, पृथ्वी मे स्थैर्य, वायु में बल, अग्नि मे तीक्ष्णता, चन्द्रमा मे प्रभा, आकाश मे शब्द और जल मे शतलता 'हो । ये सब अविनाशी, उत्तम और स्थिर जितने गुण हैं, वे आपके ही है, विद्वान् लोग ऐसा ही कहते है ।१५४-१५५ । आप जप, जप्य, महायोगी, महादेव, महेश्वर, पुरेशय, गुहावासी खेचर, रजनीचर, तपोनिधि, गुहगुरु नन्दन, नन्दिवर्धन, हयशीष, धराधाता, विघाता, भूतिवाहन, बोधव्य, वोधन, नेता, धूर्व, दुष्प्रकम्पक, वृहद्रथ, भीमकर्मा, वृहत्कीति, धनञ्जय, घण्टप्रिय ठवजी, छत्री, पताका रथपलि, कत्रची, पट्टिशी, शी . पाशहस्त, परश्वभृत् अग, अनघ, शूर ओर इन्द्रमश्रु विनाशक है । आपको प्रसन्न करके हम लोगो ने पूर्वकाल में युद्ध मे शत्रुओं को मार। है ।१५६-१६ । आष अग्नि है । सव समुद्र को पीफर भी आप तृप्त नही हुये हैं । आप फघागार प्रसन्नात्मा, काम को म।रमेवालेकाम को देनेवाले प्रिय, ब्रह्मण्य, ब्रह्मचारी गछन, शिeqजित वेदों का अचना। शी कोषप्रकल्ति यज्ञ ओर हव्यवाहन हैं । आप वेदोक्त हव्य को धारण करते है । आपके प्रसन्न होने से ही हम सब प्रसन्न होते है ।१६२-१६३। आप ईश, अनादितेजोराशि, लोककर्ता और लोकसृष्टि-कारक हैं । सांख्यज्ञाता योगिगण आपकी प्रकृति से श्रेष्ठ ज्ञान लाभ कर मृत्यु मुख से बचकर अमर हो जाते हैं ।१६४ नित्ययुक्त योगिगण योगबल से आपको जानकर ।