पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१८९

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१७० TE एवं कल्पे तु वै कल्पे संज्ञा नश्यति तेऽनघ । कल्पशेषाणि भूतानि सूक्ष्माणि पार्थिवानि च ॥८५ सा चैष हृ श्वरी माया जगतः समुदाहृता । स एष पर्वतो मेरुर्देवलोको ह्यदाहृतः ८६ तवैवेदं हि माहात्म्यं दृष्ट्वा चऽऽत्मानमात्मना । ज्ञात्वा चेश्वरसद्भावं ज्ञात्वा मामम्बुजेक्षणम् ।u८७ महादेवं महायोगं भूतानां वरदं प्रभुम् । प्रणवात्मानमासाद्य नमस्कृत्व(त्य)जगद्गुरुम् ।। त्वां च मां चैव संक्रुद्धो निश्वसान्निर्दहेदयम् एवं ज्ञात्वा महायोगमभ्युत्तिष्ठ महाबल । अहं त्वामग्रतः कृत्वा स्तोष्येऽहमनलप्रभन् ८८ १८६ ६० त उवाच ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा ततः स गरुडध्वजः । अतीतैश्च भविष्यैव वर्तमानैस्तथैव च । नामभिश्छान्दसैश्चैव इदं स्तोत्रमुदीरयत् नमस्तुभ्यं भगवते सुव्रतेऽनन्ततेजसे । नमः क्षेत्राधिपतये बीजिने शूलिने नमः अमेढ्योर्वमेद्वाय नमो वैकुण्ठरेतसे । नमो ज्येष्ठाय श्रेष्ठाय ह्यपूर्वप्रथमाय च नमो हव्याय पूज्याय सद्योजाताय वै नमः । (गह्वराय धनेशाय हैमचीराम्बराय च ६१ ६२ ४३ । मार्गों की ओर उन्मुख होते देखकर आप शंकर की माया के प्रभाव से मोहित हो गये । अनघ इसी प्रकार प्रत्येक कल्प में आपकी चेतना शक्ति लुप्त हो जाती है । कल्प के बीत जाने पर सब पार्थिव पदार्थों सूक्ष्म रूप में स्थित रहते हैं ।८४-८५। यही इस संसार ईश्वरीय माया कही जाती है । यह मेरु पर्वत ही देवलोक कह जाता है । यह सब कुछ आपका ही माहात्म्य है । अब आप स्वय अपनी महत्ता को पहचाने, ईश्वर की स्थित, कमलनयन मुझको, ( विष्णु को ) महादेव महायोग, प्राणियों के वरद ता प्रभु, प्रणवारमा महादेव को भली भाँति जानकर इस जगद्गुरु का नमस्कार कीजिये । नही तो क्रुद्ध होकर ये महादेव एक ही साँस में हम दोनों को जला देगे । महाबल ! इम रहस्य को जान कर अब आप उठिये, मैं आपको आगे करके अग्नि के समान तेजस्वी शंकर की स्तुति कर्तृगा ।८६-८६। सूत बोले-- इस प्रकार ब्रह्मा को आगे कर गरुड़ध्वज विष्णु ने अतीत, भविष्य और वर्तमान के नामौ तथा विविध वैदिक ऋचाओं द्वारा इस स्तोत्र को कहा 1& ० ‘आप भगवान् सुव्रत और अनन्त तेज वाले है आपको नमस्कार है। आप क्षेत्राधिपति वीजी और शूलधारी हैं, आपको नमस्कार है। आप लिज़- रहित, ऊर्दू वलिङ्ग, ओर वैकुण्ठरेता हैं, आपको नमस्कार है । आप ज्येष्ठ, श्रेष्ठ, अपूर्व और प्रथम है आप को नमस्कार है e१-६२। आप हव्प, पूज्य और सद्योजात है, आपको नमस्कार है। आप गह्र ( शङ्कर ।

  • धनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्थो ग. पुस्तके नास्ति।