पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१८८

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चतुवंशोऽध्यायः १६६ ततस्तस्मात्प्रबुद्धात्मा देवो देववरः प्रभुः। हिरण्यगर्भा भगवानहं जज्ञे चतुर्युजः ७६ (*ततो वर्षसहस्रान्ते वायुना तद्विधा लतम् ।) अतारार्केन्दुनक्षत्रं शून्यं लोकमवेक्ष्य च। कोऽयमत्रेत्यभिध्याते कुमारास्तेऽभवंरतदा ७७ प्रियदर्शनास्तु तनवो(या) येऽतीताः पूर्वजास्तव। भूयो वर्षसहस्रन्ते तत एवाऽऽत्मजास्तव । पद्मपत्रायतेक्षणाः ७८ भुवनानलसकाशः श्रीमान्सनत्कुमारस्तु ऋतुश्चैवोर्वरेतसो । सनातनश्च सनकस्तथैव च सनन्दनः । उत्पन्नः समकालं ते बुद्ध्याऽतीन्द्रियदर्शनाः ७३ उत्पन्नाः प्रतिघात्मनो जगदुश्चैतदेव हि । नारष्यन्ते च कर्माणि तापत्रयविजताः ८० अल्पसौख्यं बहुक्लेशं जराशोकसमन्वितम् । जीवितं मरणं चैव संभवं च पुनः पुनः ८१ स्वप्नभूतं पुनः स्वर्गे दुःखानि नरकास्तथा । विदित्वा चाऽऽगमं सर्वमवश्यं भविसव्यताम् ॥८२ ऋभु सनत्कुमारं च दृष्ट्वा तव वशे स्थितौ । त्रयस्तु त्रील्गुणान्हित्वा आत्मजाः सनकादयः । वैवर्तेन तु ज्ञानेन निवृत्तास्ते महौजसः ८३ ततस्तेष्वप्रवृत्तेषु सनकविषु वै शिषु । भविष्यसि विमूढस्तु मायया शंकरस्य तु ८४ - --


--- - - -- --- - - - र चन्द्रमा चतुर्मुज भगवान् विष्णु दूये । तारा, नक्षत्र, सूर्य और चन्द्रमा से शून्य लोक को देखकर 'यह क्या है' ऐसा प्रगट आप सोचने लगे । उसी समय आपको कतिपय कुमार उत्पन्न हुये ॥७६-७७अतीत कल्प में पहले जो आपके प्रिय पुत्र उत्पन्न हुये थे वे ही पुनः सहस्र वर्ष के अन्त में आपके पुत्र हुये, जो अग्नि के समान तेजस्वी और जिनके नेत्र कमल के समान बिशाल थे ।७८। उनमें भी मान् सनत कुमार और ऋतु ऊद्ध्वरेता थे । सनातन, सनक और सचन्दन भी उसी समय उत्पन्न हुये जो कि अपनी मेशा के प्रभाव से सूक्ष्मदर्शी हो गये ।७६। उत्पन्न होते ही उन कुमारों ने कहा हम कोई भी कार्य नही करेगे हम तोनों प्रकार के ताप. से पृथक् रह कर आत्मज्ञ वनेगे' क्योंकि इस बुढ़ापा और शोक ग्रस्त जीवन में सुख बहुत कम और क्लेश ही अधिक है, साथ ही जीवन मरण और पुनर्जन्म का गोरखधन्धा भी लग है ।८०-८१। जीवन में स्वर्ग-सुख स्वप्न है केवल नरक और दुख का ही भोग करना है। इस प्रकार उन सुमारों को समस्त आगम और अवश्यम्भावी भविष्य था। का ज्ञान । -ऋभू . और सनत्कुमार को आपके वश में देखफर सनक आदि आपके तेज़स्व पुत्र परम ज्ञान के कारण सृष्टि कर्म से विमुख हो गये ॥८२-८३। उस समय इस प्रकार अपने पुत्रों को निवृत्ति

  • इदमर्घ नास्ति ख ग घ पुस्तकेषु ।

फा०-२२