पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१८७

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१६८ वायुपुराणम् जीवः खल्वेष जीवानां ज्योतिरेकं प्रकाशते । कालक्रीडनकैर्देवः तोउते शंकरः स्वयम् ६५ प्रधानमव्ययं ज्योतिरव्यक्तं प्रकृतितमः । अस्य चैतानि नामानि नित्यं प्रसवधमिजः । यः कः स इति दुःखार्तेझू उयते यतिभिः शिवः ६६ एष वजी भान्बीजमहं योनिः सनातनः । एवमुक्तोऽथ विधात्मा ब्रह्मा विष्णुम्भपत ।।६७ भवान्योनिरहं बीजं कथं बीजी महेश्वरः। एतन्मे सूक्ष्ममव्यक्तं संशयं छेत्तुमर्हसि ६८ क्षुत्क्षा चैवं समुपैति ब्रह्मणा लोकतन्त्रिणा । इदं परमसादृश्यं प्रश्नमभ्यवदद्धःि ।।६६ अस्मान्महत्तरं गुह् भूतमन्यन्न विद्यते । महतः परमं धाम शिवनयात्मिनां पदम् भावेन चऽऽत्मानं प्रविष्टस्तु व्यवस्थितः । निष्कलः सूक्ष्ममव्यरतः सकलश्च महेश्वरः ७१ अस्य मायाविधिज्ञस्य अग्रूप्रगमनस्य च । पुरा लिङ्ग ” भवद्वीजं प्रथमं त्वदिसाकम् ७२ मयि योनौ समायुक्तं तवीजं कालपर्ययात् । हिरण्ययमपारं तद्योन्यामुण्डमचायत शतानि दशवर्षाणामष्टं चाप्सु प्रतिष्ठितम् । अन्ते वर्षसहस्रस्य वायुना तद्विधाकृतम् कपालमेकं द्यौर्जले कपालमपरं क्षितिः। उल्बं तस्य महत्सेधं योऽसौ कनकपर्वतः ७० ७ ७४ ७५ पुराण पुरप हैं, जीवो के प्राण और अपने प्रकाश से प्रकाशित होनेवाले यही है । स्वयं शंकर ही वालों की भति जगत् से खेला करते है । इस लोक'को सृष्टि करने वाले शिव के प्रधान, अव्यय, ज्योति, अव्यक्त, तम और प्रकृति आदि नित्य नाम है। दुःख से पीडित योगी इसी शिव को ‘चह कहाँ है ' कह कर ढडते रहते है। ये वीजी हैं, आप वीज है और मैं सनातन योनि हूँ ।६३-६६। विश्वात्मा ब्रह्मा इन बातो को सुनकर विष्णु से बोले - आप योनि है, मैं वीज हूँ और महेश्वर वीजी ( बीज बोने वाले ) हैं. यह कसे ? आप मेरे इंस सूक्ष्म, अव्यक्त सन्देह को अवश्य दूर करें ॥६७६८। लोकशासक प्रहृा ने लोकसृष्टि सम्बन्धी वातों को जन कर भी इस प्रकार का सन्देह युक्त प्रश्न पूछा जिसको शुनकर भगवान् हरि ने उत्तर दिया कि, 'इस महेश्वर से बढ़कर रहस्यमय दूसरा कोई भूत नही है । महन् से महान् और अध्यात्मवादियो के ये परम प्राप्य पद है ।६९-७०। ये दो रूपो से थारमा में प्रविष्ट होकर स्थित है. ये एक रूप में निष्कलसूक्ष्म, अव्यक्त और दूसरे रूप मे सकल और महेश्वर है। इस मायाविविज्ञ, अविज्ञेयगति का पूर्वकाल में एक लिंग आदि सर्ग के लिये ब्रह्म रूपी वीज के सहित प्रकट हुआ । कालक्रम से मुझ सनातन -योनि मे वह चीज प्रविष्ट हुआ । उस योनि में वह बीज विशाल सुवर्णमय अण्ड के रूप में परिणत हो गया । वह अण्ड एक हजार वर्ष तक जल पर स्थित रहा । हजार वर्ष के अन्त मे वायु के द्वारा वह दो भागों में विभक्त हो गया |७१-७४॥ उसके एक टुकड़े से स्वर्ग और दूसरे से पृथ्वी उत्पन्न हुई। उस अण्ड कपाल का जोविशाल, ऊंचा उव (आवरण) था, उससे कनकाचल वना ।७५। तत्पश्चात् उसमे से देवाधिदेव, प्रबुद्धात्मा, प्रभू हिरण्यगर्भ और