पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१८६

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

चतुर्विंशोऽध्यायः १६७ ५५ प्रत्यासन्नमथाऽऽयन्तं बालार्काभं महननम् । भूतमत्यद्भुतं दृष्ट्वा नारायणमथाब्रवीत् ॥५४ अप्रमेयो महावक्त्रो दंष्ट्री व्यस्तशिरोरुहः। दशबाहुस्त्रिशूलाङ्गदो नयनैवश्वतोमुखः लोकप्रभुः स्वयं साक्षाद्विकृतो मुञ्जमेखली । मेट्टप्रोलॅन महता नदमानोऽतिभैरवम् ५६ कः खल्वेष पुमान्विष्णो तेजोराशिर्महाद्युतिः । व्याप्य सव दिशो द्यां च इत एवाभिवर्तते u५७ तेनैवमुक्तो भगवान्विष्णुर्बह्माणवब्रवीत् । पद्भयां तलनिपातेन यस्य विक्रमतोऽर्णवे । । वेगेन महताऽऽकाशे व्यथिताश्च जलाशयाः ५८ छुटाभिवश्श्वतोऽत्यर्थं सिच्यते पद्मसंभवः । घ्राणनेन च वातेन कम्प्यमानं त्वया सह । दोधूयते महापद्म स्वच्छदं मम नभिजम् ५६ स एष भगवानशो ह्यनादिश्चान्तकृद्विभुः। भवानहं च स्तोत्रेण ह्यपतिष्ठाव गोध्वजम् ॥६६० ततः क्रुद्धोऽम्बुजाभाकं ब्रह्मा प्रोवाच केशवम् । न भवानूनमात्मानं लोकानां योनिमुत्तमम् ॥६१ ब्रह्माणं लोककर्तारं मां च वेत्ति सनातनम् । कोऽयं भोः शंकरो नाम ह्यावयोर्यतिरिच्यते ६२ तस्य तनोर्धजं वाक्यं श्रुत्वा विष्णुरभाषत । मा मैवं वद कल्याण परिवादं महात्मनः ६३ मायायोगेश्वरो धर्मो दुराधर्षो वरप्रदः। हेतुरस्यात्र जगतः पुराणः पुरुषोऽव्ययः ६४ प्रातःकालीन सूर्य के समान तेजस्वी, विशाल मुख वाले किसी अद्भुत जीव को अपनी ओर समीप आते देखकर उन्होंने नारायण से पूछा ।५४विष्णो ! यह महामुख, बड़े-बड़े दाँतों वाला पुरुष कौन है जिसको मै पहचान नहीं रहा जिसके शिर के केश उधर-इधर बिखरे हुये है जो दशभुज, त्रिशूलधारी, चारों ओर मुख और आंख वाला, साक्षात् लोकप्रभु , विकृत, पुंज की बनी मेखला पहने हुये है, जिसका लग ऊपर उठा हुआ है और जो भयंकर गर्जना कर रहे है । भगवन् ! ये ५ जोराशि कौन है जो अपने तेज से सब दिशाओं को और आकाश को व्याप्त करते हुये उधर ही आ रहे है |५५-५७ ब्रह्म की इन बातों को सुनकर भगवान् विष्णु ने ब्रह्मा से कहा-"जिनके पदप्रहार से समुद्र में बड़े वेग से चंचल, उत्ताल तरगे उठ रही है, जिसकी छटा से पद्मसंभव ब्रह्मा भी आवृत से हो गये है, और जिसके श्वास से आपके सहित यह मेरी नाभि से निकला से कपित हो रहा है वे भगवान् ईश हैं जो अनादिलोकनाशक और विभु है । हुआ कमल वेग चलिये, आप और मैं, स्तुति से इस वृषभध्वज का समीप चलकर अभिनन्दन करें 1५८-६०। यह सुनकर ब्रह क्रुद्ध हो गये, और कमलनयन केशव से बोले-'आप लोककर्ता अपने को और लोकपालक सनातन प्रभु मुझको ( ब्रह्मा को ) निश्चय ही नहीं जानते हैं! यह शंकर कौन है जो हम दोनों से बढ़कर है ? ब्रह्मा की क्रोध से भरी बातों को सुनकर विष्णु ने कहा-६१-६२६। 'कल्याण ! महात्मा के प्रति ऐसी अपमान जनक बातें न कहें । ये मायायोगेश्वर, घर्मरूप, वरदाता और दुर्जेय हैं, ये इस जगत के कारण, अव्यय,