पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१८२

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चतुवंशोऽध्यायः १६३ अथ तस्याच्युतः श्रुत्वा ब्रह्मज्ञस्तु शुभं वचः । उदतिष्ठत पर्याद्विस्मयोत्फुल्ललोचनः १७ प्रत्युवाचोत्तरं चैव यिते यच्च किंचन । द्यौरन्तरिक्षे भूश्चैव परं पदमहं प्रभुः १८ तमेवमुक्त्वा भगवान्विष्णुः पुनरथाब्रवीत् । कस्त्वं खलु समयातः समीपं भगवन्कुतः। कुतश्च भूयो गन्तव्यं कुत्र व ते प्रतिश्रयः १६ को भवान्विश्धसूतस्त्वं कर्तव्यं किं च ते मया । एवं ब्रुवाणं वैकुण्ठं प्रत्युवाच पितामहः ।२० यथा भवांस्तथा चाहमादिकर्ता प्रजापतिः। नारायणसम्ख्यातः सर्वे वै मयि तिष्ठति २१ सविस्मयं परं श्रुत्वा ब्रह्मणा लोककर्तु' णा । सोऽनुज्ञातो भगवता वैकुण्ठो विश्वसंभवः २२ कौतूहलान्महायोगी प्रविष्टो ब्रह्मणो मुखम् । इमानष्टादश द्वापान्सिसमुद्रान्सपर्वतान् २३ प्रविश्य स महातेजश्चातुर्वर्णसमाकुलान् । ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तान्सप्तलोकान्सनातनान् ॥२४ ब्रह्मणस्तूदरे दृष्ट्वा सर्वान्विष्णुर्महायशाः । अहोऽस्य तपसो वीर्यं पुनः पुनरभषत ।।२५ पर्यटन्विविधाँल्लोकान्विष्णुर्नानाविधाश्रमान् । ततो वर्षसहस्रान्ते नान्तं हि ददृशे तदा ॥२६ तदाऽस्य वक्त्रान्निष्क्रम्य पन्नगेन्द्रादिकेतलः। अजातशत्रुगर्भगवान्पितामहमथाब्रवीत् २७ भगवन्नादिमध्यं च अन्तः फालदिशे न च। नाहमन्तं प्रपश्यामि ह्यदरस्य तवानघ २ |! विस्मय से बड़ी-बड़ी आँखे नच कर पलंग पर से उठ बैठे । उन्होंने उत्तर दिया--"जो कायं, करण, अन्तरिक्ष, भूमि, स्वर्ग आदि है, उनका प्रभु मैं हूँ । मै ही परम पद हुँ ।" इस तरह कहकर भगवान् विष्णु ने फिर कहा- हे भगवन् ! आप कौन हैं ? कहाँ से आप हमारे समीप आये है ? कहाँ जायेंगे ? फिर आपका आश्रम कहाँ है ? विश्वमूत धारण करनेवाले आप कोन है ? हम आपका कोन सा कार्य करे ?’ वैकुष्ठविहारी विष्णु के इस प्रकार कहने के बाद पितामह ने कहा ॥१७-२०। "जिस तरह आप है उसी तरह हम भी आदिकर्ता प्रज। पति है । मेरा नाम नारायण है और मुझमें ही सब प्रतिष्ठित है’’ ।२१। लोक कर्ता ब्रह्मा से इस प्रकार सुनकर विश्वसम्भव वंक्षुण्ठविहारी भगवन् अत्यन्त विस्मित हो गये और उनसे आज्ञा लेकर महायोगी विष्णु ब्रह्मा के मुख मे बैठ गये । महायशस्वी और तेजस्वी विष्णु ने वहाँ प्रवेश करके देखा कि सागर पर्वतो के साथ आठ द्वीप और ब्रह्मा से लेकर स्तम्बपर्यन्त चतुराश्रम में विभक्त सातों सनातन लोक यहाँ विद्यमान है ।२२-२४। यह देखकर वे आप ही आप बोलने लगे—अहो ! इनकी तपस्या का प्रभाव अद्भुत है ! ।२५। विष्णु वहाँ नाना प्रकार के आश्रमों और लोको में घूमने लगे; किन्तु हजार वर्ष के बीत जाने पर भी उन्होंने अन्त नही देखा । तव अजातशत्रु गरुड़ध्वज भगवान् ब्रह्मा के मुंह से निकल कर बोले- 'हे भगवन् ! हे निष्पाप ! आपके उदर क आदि अन्त, मध्य, नही, काल, दिशा और अन्त