पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१८३

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१६४ एवमुक्त्वाऽब्रवीद्भूयः पितामहन्निदं हरिः । भवानप्येवमेवाद्य ह्यदरं मम शाश्वतम् । । प्रविश्य लोकान्पश्यैताननौपम्यान्द्विजोत्तम २& मनःप्रह्रादन वाणीं श्रुत्वा तस्याभिनन्द्य च। श्रीपतेरुदरं भूयः प्रविवेश पितामहः ३० तानेव लोकान्गर्भस्थः पश्यन्सोऽचिन्त्यविक्रमः। पर्यटित्वाऽऽदिदेवस्य ददर्शान्तं न वै हरेः ३१ ज्ञात्वाऽऽगमं तस्य पितामहस्य द्वाराणि सर्वाणि विधाय विष्णुः विभुर्मनः कर्तुमियेष चऽऽशु सुखं प्रसुप्तोऽस्मि महाजलौघे । ३२ ततो द्वाराणि सर्वाणि पिहितान्युयलक्ष्य ते। सूक्ष्मं कृत्वाऽऽत्मनो रूपं नाभ्यां द्वारमविन्दत ।।३३ पद्मसूत्रानुमार्गेण ह्यनुगस्य पितामहः । उज्जहाऽऽत्मनो रूपं पुष्कंराच्चतुराननः । विरराजारविन्दस्थः पद्मगर्भसमद्युतिः ३४ एतस्मिन्नन्तरे तभ्यामेकैकस्य तु कात्स्थतः । प्रवर्तमाने संहर्षे मध्ये तस्यार्णवस्य तु” ३५ सूत उवाच ततो ह्यपरिमेयात्मा भूतानां प्रभुरीश्वरः। शूलपाणिर्महादेवो हैमचीराम्बरच्छदः आगच्छयत्र सोऽनन्तो नागभोगपतिर्हरिः ३६ का भी मुछे पता नहीं चलता । ऐसा कहकर भगवान् हरि ने पितामह से फिर कहा-हे द्विजोत्तम ! आप भी इसी प्रकार हमारे शाश्वत उदर मे प्रवेश कर अनुपम लोकों को देखें ।२६-२९। पितामह ने जब मन को प्रसन्न करनेवाली ऐसी वाणी को मुना, तो वे श्रीपति विष्णु का अभिनन्दन कर उनके उदर मे बैठ गये । अत्यन्त पराक्रमी गर्भस्थ ब्रह्मा ने घूम-फिर कर उन्ही लोकों को देखा, किन्तु विष्णु देवता के उदर का अन्त नही पा सके ।३०-३१। 'इधर विष्णु ने जव उदर के भीतर पितामह के आगमन को समझा तब उन्होने सव द्वारों को बन्द कर उस महाजल राशि मे सुखपूर्वक 'सो जाने की इच्छा को ।३२। ब्रह्मा ने जब सव द्वारों को बन्द देखा, तब उन्होने सूक्ष्म रूप धारण किया और नाभिदेश मे द्वार पाकर कमलनाल के सहारे निकल कर अपने रूप का उद्धार कर लिया । उस समय चतुरानन ब्रह्मा पद्मगर्भ के समान द्युतिमान् होकर कमल के बीच जा बैठे । इसी प्रकार उन दोनो का आपस मे कौतुकव्यापार उस जलार्णव में चलने लगा ।।३३-३५॥ सूतजी बोले-इसी समय जहाँ नागभोगपति हरि स्थित थे, वहाँ अपेरिमेयरमा भूतपति सुवर्ण चीराम्बरधारी शूलपाणि महादेव 'आये ।३६ वे बड़ी शीघ्रता और जोरजोर से पैर पटक रहे थे, जिससे

  • अस्मिन्स्थलेऽध्यायपरिसमाप्तिदृ’ इयते ख, घ, ङ. पुस्तकेषु ।