पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१८१

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१६२ वायुपुराणम् ८ योऽतीतः सप्तम कल्पो मया वः परिकीतितः । समुद्भः सप्तभिर्गाढमेकोभूतैर्महार्णवैः । आसीदेकार्णवं घोरमविभागं तमोमयम् मायैकार्णवे तस्मिञ्शङ्खचक्रगदाधरः। जीमूतभोऽम्बुजाक्षश्च किरीटी श्रीपतिर्हरिः नारायणमुखोद्गीर्णः सोऽष्टमः पुरुषोत्तमः । अष्टबाहुर्महोरस्को लोकानां योनिरुच्यते । किमप्यचिन्त्यं युक्तात्मा योगमास्थाय योगवित् १० फणासहस्रकलितं तमप्रतिमवर्चसम् । महाभोगपतेर्भागिमन्वास्तीर्य महच्छयम् ।। तस्मिन्महति पर्यङ्क शेते वै कनकप्रभे ११ एवं तत्र शयानेन विष्णुना प्रभविडणुना । आत्मारामेण क्रीडार्थं सृष्टं नाभ्यां तु पङ्कजम् ॥१२ शतयोजनविस्तीर्ण तरुणादित्यवर्चसम् । वजदण्डं महोत्सेधं लीलया प्रभविष्णुना १३ तस्यैवं फ्रीडमानस्य समीपं देवमीढ्षः । हेमब्रह्माण्डजो ब्रह्मा रुक्मवर्णा ह्यतीन्द्रियः । चतुर्मुखो विशालाक्षः समागम्य यदृच्छया १४ धिया युक्तेन नव्येन सुप्रभेण सुगन्धिना। तं क्रीडमानं पद्मेन दृष्ट्वा ब्रह्मा तु भेजिवान् ।१५ स विस्मयमथाऽऽगम्य शस्यसंपूर्णया गिरा। प्रोवाच को भवाञ्शेते आश्रितो मध्यमम्भसाम् ॥१६ करते है। यह जो सप्तम कल्प बीत गया है, उसे हमने आप लोगो को बताया है। इस कल्पात्रशेष में सातो सागर मिलकर एक हो जाते है । घोर अन्धकार छा जाता है । इस एक समुद्र में कहीं भो विभाग नही रहता है। ७-८ उस एकार्णव में शह्व-चक्रगदा धारण करनेवाले मेघतुल्य, कमलनयन, किरीटधारी, श्रीपति, नारायण के मुख से उत्पन्न, अष्टम पुरुषोत्तमअष्टबाहु, विशालवक्ष, लोकसमूह के उत्पत्तिस्थान योगात्मा हरि माया द्वारा किसी अचिन्त्य योग को ग्रहण करके महान् नागराज के सह्स्र फणों से युक्त अत्युन्नत अनुपम कान्ति वाले और सुवर्ण की तरह चमकीले शरीर रूपी पयंछ को बिछा कर सोते हैं ।e-११॥ आरमाराम प्रभविष्णु ने सोते हये ही कौतुकवश नाभिदेश | से एक कमल को उत्पन्न किया । उस कमल का विस्तार स योजन का था और वह तरुण सूर्य की तरह कान्तिमान् था । वह वन की तरह दण्डवाला अत्युन्नत कमल प्रभविष्णु की लीला से उत्पन्न हुआ था । उस कमल से विष्णु क्रीड़ा कर रहे थे कि उनके समीप स्वर्णमय ब्रह्माण्ड से उत्पन्न अतएव स्वर्णवर्ण, अतीन्द्रिय, विशालाक्ष, चतुर्मुखी ब्रह्मा इच्छानुसार उन्हें चूंढते हुये वह आ गये । श्रीसम्पन्नप्रभावान्. सुगन्धित नवीन प से विष्णु को खेलते हुये देखकर ब्रह्मा उनके और समीप पहुँच गये । वहाँ जाने पर ब्रह्म विस्मित हो गये। वे गम्भीर स्वर में बोले- "आप । फौन हैं जो इस जल के बीच सो रहे हैं ?»१२१६ ब्रह्मा के उस शुभ वचन को सुनकर ब्रह्मज्ञ अच्युत t;