पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१७८

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त्रयोविंशोऽध्यायः १५६ षवंशे परिवर्ते तु यदा व्यासः पराशरः । तदाऽप्यहं भविष्यामि सहिष्णुर्नाम नामतः । पुण्यं रुद्रवटं प्राप्य कलौ तस्मिन्युगान्तिके २१२ तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति सुधामिकाः। उलूको वैद्युतश्चैव शर्वको ह्याश्वलायनः । । प्राप्य माहेश्वरं योगं गन्तारस्ते तथैव हि २१३ सप्तविशतिमे प्राप्ते परिवर्ते क्रमागते । जात्कण्य यदा व्यासो भविष्यति तपोधनः ।।२१४ तदाऽप्यहं भविष्यामि सोमशर्मा द्विजोत्तमाः । प्रभासं तीर्थमासाद्य योगात्मा लोकविश्रुतः ॥२१५ तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति तपोधनाः। अक्षपादः कणादश्च उलूको वत्स एव च योगात्मानो महामनो विमलाः शुद्धबुद्धयः। प्राप्य महेश्वरं योगं रुद्रलोकं ततो गताः ।। अष्टाविंशे पुनः प्राप्ते परिवर्ती तूमागते । पराशरसुतः श्रीमान्विष्णुर्लोकपितामहः २१७ यदा भविष्यति व्यास नास्न द्वैपायनः प्रभुः। तदा षष्ठेन चांशेन कुंडणः पुरुषसत्तमः । बासुदेवाद्यदुश्रेष्ठो वासुदेवो भविष्यति २१८ तदा चाहं भविष्यामि योगाम योगमायया । (‘लोकविस्मयनार्थाय ह्मचरिशरीरकः ॥२१e श्मशाने मृतमुत्सृष्टं दृष्ट्वा लोकमनाथकम् । ब्राह्मणानां हितार्थाय प्रविष्टो योगमायया) २२० ।।२१६ व्यास होगे, अब हम सहिष्णु के नाम से विख्यात होगे । उस कलियुग के आदि में हमारा पवित्र रुद्रवन में निवास होगा । वह भी हमें घर्मनिष्ठ उलूक, वैद्युग, शॉक और आश्वलायन नामक पुत्र होंगे, जो माहेश्वर योग को प्राप्त कर रुद्रलोक को जायेगे.1२१२-२१३। क्रम से जब सत्ताइसवें द्वापर का परिवर्तन होगा । तव तपोधन जातुकण्यं व्यास होगें । हम भी तब द्विजोत्तम सोमशर्मा होंगे । प्रभास तीर्थ में आश्रय ग्रहण करेंगे और ये गारमा होकर संसार में प्रसिद्ध होंगे ।२१४२१५। वहाँ भी हमें अक्षपाद, कणाद'उलूक ओर वरस नामक चार तपस्वी पुत्र होगे । वे योगारमा, महारम, विमल और शुद्ध बुद्धि होंगे । वे सब भी माहेश्वर योग को प्राप्त कर रुद्रलोक को जायेगे । क्रम -से जब अठाईसवे दूपर का परिवर्तन होग और लोकपितामाह पराशरसुत श्रीमन् विष्णु द्वैपायन व्यास होंगे, तव यदुश्रेष्ठ पुरुषोत्तम कृष्ण छठे अश ' से वासुदेव के रूप में वसुदेव से प्रादुर्भूत होगे (२१६-२१८। उस समय हम योगारमा होकर योगमया द्वार लोगों को विस्मित करने के लिये प्रह्मचारी देह में प्रादुर्भूत होंगे ।२१६। मृत अनथ लोगों को श्मशान में निक्षिप्त होते देखकर ब्राह्मणों के हित के लिये हम योगमाया-बल से आप एवं विष्णु के साथ दिव्य और पपवित्र

  • धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्यः ख. घ. पुस्तकेषु नास्ति ।