पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१५५

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१३६ वायुपुराणम् अथ द्वाविंशोऽध्यायः कट्यसंख्यानिरूपणम् ऋषय ऊचुः अत्यद्भुतमिदं सर्वं कल्पानां ते महामुने । रहस्यं वै समाख्यातं मन्त्राणां च प्रकल्पनम् । १ न तवविदितं किचित्त्रिषु लोकेषु विद्यते । यस्माद्विस्तरतः सर्वाः कल्पसंख्या ब्रवीहि नः ॥२ ४ वायुरुवाच अत्र वः कथयिष्यामि कल्पसंख्या यथा तथा । युगागं च वर्षाग्रं तु ब्रह्मणः परमेष्ठिनः ३ एकं कल्पसहस्र’ तु ब्रह्मणोऽब्दः प्रकीतितः । एतदष्टसहस्र' तु ब्रह्मणस्तुयुगं स्मृतम् एकं कल्पसहस्र' तु सवनं तत्प्रजापतेः । सवनानां सहस्र’ तु द्विगुणं त्रिवृतं तथा ।।५ ब्रह्मणः स्थितिकालस्य चैतत्सर्वं प्रकीतितम् । तस्य संख्यां प्रवक्ष्यामि कल्पसंज्ञा यथाक्रमम् ॥६ अष्टाविंशतियें कल्पा नामतः परिकीतिताः तेषां पुरस्ताद्वक्ष्यामि कल्पसंक्षा यथाक्रमम् ७ अध्याय २२ कल्प-सख्या निरूपण ऋषियों ने कहा—महामुनि ! आपने मन्त्रों की कल्पना और कल्पों का अत्यन्त आश्चर्यजनक और रहस्यमय आख्यान सुनाया। तीनों लोगों में आपसे कुछ भी अज्ञात नहीं अतः कृपाकर विस्तारपूर्वक कल्प संख्याओं का वर्णन हम लोगों को सुनाइए ।१-२॥ वायु बोले—अव में कल्प संख्या तथा परमेष्ठी ब्रह्मा के युग और वर्षों के विषय मे तुम लोगों से कह रहा हूँ । एक हजार युग ब्रह्मा का वर्ष कहा जाता है । ब्रह्मा के आठ हजार वर्षों का उनका एक युग होता है ।३-४। एक सहस्र युग प्रजापति का सवन हैं । दो सहस्र सवनों का उनका त्रिवृत होता है । ब्रह्मा के स्थितिकाल की यही सारी कथा है । इसके आगे क्रमशः उस काल की संख्या बतला रहा हूँ ।४-६ जिन अट्ठाईस कल्पों की नामावली बताई है, पहले उन कल्पों के नाम पड़ने का कारण कह रहा है |७ रथन्त ।