पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१४२

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विंशोऽध्यायः १२३ अथोंकारमयो योगी न चरेत्वक्षरी भवेत् ॥४३ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्तेऽरिष्टनिरूपणं नामैकोनविंशोऽध्यायः ।१६।। अथ विंशोऽध्यायः ओंकारप्राप्क्षिळक्षणनिरूखणन वायुरुवाच अत ऊध्वं प्रवक्ष्यामि ओंकारप्राप्तिलक्षणम् । एष त्रिमात्रो विज्ञेयो व्यञ्जनं चात्र सस्वरम् ॥१ प्रीमा वैद्युतो मात्रा द्वितीया तामसी स्मृता। तृतीयां निर्गुणां विद्यान्मात्रामक्षरगामिनीम् ।।२ द्वारा सम्पूर्ण देह को पूर्ण कर दे। ऐसा करने से योग ओंकारम्य हो जाता है, उस अविनाशी योगी का नाश नहीं होताऔर वह अमर हो जाता है । १२-४३॥ श्रीत्रयुमहापुराण का अरिष्ट निरूपण नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्तं ।।१६।। अध्याय -२० ओंकारप्राप्तिं के लक्षण को निरूपण वायु बोले-इसके बाद अब हम ओंकार प्राप्ति के लक्षण कहते हैं । यह ओंकार तीन मात्राओं से युक्त है और इसका व्यञ्जन स्वर-समन्वित है ।१। इसकी पहली मात्रा को वैद्युती, दूसरी को तामसी और तीसरी अक्षरगामिनी मात्रा को निर्गुण जानना चाहिये । शिर में चीटी के समान स्पर्शवाली गान्धार