पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१४३

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१३४ ४ ७ ग(ग)धर्वीति च विज्ञेया गान्धारस्वरसंभवा। पिपीलिकासमस्पर्शी प्रयुक्ता मूर्धन लक्ष्यते . ॥३ तथा प्रयुक्तमोंकारं प्रति निर्वाति मूर्धनि । तथोंकारमयो योगी ह्यक्षरे त्वक्षरी भवेत् प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् ५ ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म गुहायां निहितं पदम् । ओमित्येतत्त्रयो वेदास्त्रयो लोकास्त्रयोऽग्नयः ६ विष्णुक्रमास्त्रयस्त्वेते ऋक्सामानि यचूंषि च । मात्राश्चास्य चतस्रस्तु विज्ञेयाः परमार्थतः तत्र युक्तश्च यो योगी तस्य सालोक्यतां व्रजेत् । आकारस्त्वक्षरो ज्ञेय उकारः स्वरितः स्मृतः ॥८ मकारस्तु प्लुतो ज्ञेयस्त्रिमात्र इतिसंज्ञितः । अकारस्त्वथ भूलक उकारो भुव उच्यते । सव्यञ्जनो मकारश्च स्वर्लोकश्व विधीयते । ओंकारस्तु त्रयो लोकाः शिरस्तस्य त्रिविष्टपम् ॥१० भुवनान्तं च तत्सर्वं ब्राह्म तत्पदमुच्यते । मात्रापदं रुद्रलोको ह्यमात्रस्तु शिवं पदम् ११ एवं ध्यानविशेषेण तत्पदं समुपासते । तस्माद्धयानरतिनित्यममात्रं हि तदक्षरम् ॥१२ उपास्यं हि प्रयत्नेन शाश्वतं पदमिच्छता । हस्वा तु प्रथमा मात्रा ततो दीर्घा त्वनन्तरम् ॥१३ ततः प्लुतवती चैव तृतीया उपदिश्यते । एतास्तु मात्रा विज्ञेया यथावदनुपूर्वशः १४ यावच्चैव नु शक्यन्ते धार्यन्ते तावदेव हि । इन्द्रियाणि मनो बुद्धि ध्यायन्नमनि यः सदा १५ स्वर से उत्पन्न गान्धर्वी मात्रा भी लक्षित होती है । इन मात्राओं से युक्त ओंकार जब मस्तक में लय प्राप्त करता है, तब योगी ओंकारमय हो जाता है और अक्षरत्व लाभ करता है ।२-४। ओंकार धनुष है, आत्मा वाण है और ब्रह्मा लक्ष्य है । सावधान होकर लक्ष्य-भेद करना चाहिये। इसके लिये वाण की तरह तन्मयता आवश्यक है । ओंकार रूपी एकाक्षर ब्रह्म बुद्धि रूपी गुहा में निहित है, वही परम पद है । ओंकार ही तीनों वेद, तीनो लोक और तीनों अग्नि है । यह त्रिविक्रम के तीनों पाद ऋक्, यजुः और साम है । ओंकार मे चार मात्राये है, यह विचार करके जानना चाहिये ॥५-७। उस ओंकार मे जो योगी युक्त होता है, वह ब्रह्म सा रूप्य को प्राप्त करता है। आकार को अक्षर समझना चाहिये, उकार स्वर कहा गया है और मकार प्लुत है। इस प्रकार इसके परमार्थतः तीन मात्राओं को समझना चाहिये। अकार भूलोक, उकार भुवःलोक और व्यंजन सहित मकार स्वलोंक कहा गया है । ओंकार त्रिलोकमय है । इसका शिरोभाग स्वर्ग है ।८१० सम्पूर्ण भाग भुवनमय ब्राह्मपद कहा गया है । मात्रपद रुद्रलोक है और अमात्रा यानी विन्दुस्वरूप शिवपद है । इस प्रकार विशेष प्रकार के ध्यान से उस पद की उपासना करे । इसलिये ध्याननिष्ठ योगी शाश्वत पद की कामना से यनपूर्वक उस नित्य, अविनाशी और अमात्र की उपासना करे। इसकी प्रथम मात्रा हस्व है, दूसरी मात्रा दीर्घ और तीसरी म।त्रा प्लुत है । इन मात्राओं को यथार्थ और आनुपूर्वी रूप से समझना चाहिये ।११-१४। जहाँ तक सामथ्र्यो हो, वहाँ तक इनकी धारणा करनी चाहिये । इन्द्रिय, मन, बुद्धि का जो