पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१४१

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१२२ वायुपुराणम् ३३ अग्निप्रवेशं कुरुते स्वप्नान्ते यस्तु मानवः। स्मृति नोपलभेच्चापि तदन्तं तस्य जीवितम् ॥३२ यस्तु प्रावरणं शुक्लं स्वनं पश्यति मानवः । रसं कृष्णमपि स्वप्ने तस्य मृत्युरुपस्थितः अरिष्टसूचिते देहे तस्मिन्काल उपागते । त्यक्त्वा भयविषादं च उगच्छेद्बुद्धिमान्नरः ॥३४ प्राची वा यदि वोदीची दिशं निष्क्रम्य वै शुचिः। समेऽतिस्थावरे देशे विविवक्ते जनवजते ।।३५ उदङ्मुखः प्राङ्मुखो व स्वस्थः स्वाचान्त एव च । स्वस्तिकोपनिविष्टश्च नमस्कृत्वा(य)महेश्वरम्। सम(मं)कायशिरोग्रीवं धारयेन्नावलोकयेत् । यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ॥३७ प्रागुदक्प्रवणे देशे तस्माद्युञ्जीत यागवित् ।(+-कामं वितर्क प्रीति च सुखदुःखे उमे य(त)था ॥३८ निगृह्य मनसा सर्व शुक्लध्यानमनुस्मरेत्) । प्राणे च रमते नित्यं चक्षुषोः स्पर्शने तथा ॥३e श्रोत्रे सनसि बुद्धौ च तथा वक्षसि धारयेत् । कलधर्मे च विज्ञाय समूहं चैव सर्वशः । द्वादशाध्यात्म इत्येवं योगधारणमुच्यते । शतमष्टशतं वाऽपि धारणां मूध्नि धारयेत् ॥४१ न तस्य धारणायोगाद्वायुः सर्वं प्रवर्तते । ततस्त्वापूरयेद्देहमोंकारेण समाहितः ॥४० ॥४२ “को प्रत्यक्ष देख ले , तो स्वप्न में चोट खया हुआ व्यक्ति नही वचे ।३१। स्वप्न में जो अग्नि प्रवेश करता है। और स्वप्न ही मे इस बात को भूल जाता है, उसका भी जीवन शेष समझिये ।३२। अगर कोई आदमी श्वेत वस्त्र को स्वप्न मे लाल या काला “ देखता है, तो उसकी मृत्यु हो जाती है ।३३। बुद्धिमान् मनुष्य अरिष्ट की सूचना पाकर और उस काल को उपस्थित समझकर भय-विषादे को छोड़ दे और योगानुष्ठान का उद्योग करे ।३४पूर्वी या उत्तर दिशा में जाकर शुद्धभाव से , , समस्थिरतरजनजत और पवित्र स्थान में उत्तर या पूर्व मुख होकर स्वस्तिकासन लगा कर स्वस्थ भाव से बंठ जाय और आचमन करेमहेष्वर को प्रणाम करे ॥३५-३६ शरीर सिर और ग्रीवा को सीधा कर धारण का अवलम्बन करेकिसी भी ओर न देखे । निर्वात स्थान के दिये को तरह स्थिरता धारण करे ।३७। पूर्वोत्तर दिशा के निम्न भांग में योगी योगाराघन करे। काम, वितर्क, प्रीति, सुख-दुःख आदि भावो को मन से हटा कर सत्वगुण का ध्यान करे ।३८३ प्राण, चक्षु, स्वक्, कर्ण, मन, बुद्धि, वक्षस्थल और मस्तक मे योगी धारणा का अवलम्वन करे कालधर्म को समझकर और अरिष्टादि समूह का समन्वय करके योगी बारह या एक सौ आठ धारणा को मस्तक मे धारण करे ।३e४१। इस प्रकार धारणा के द्वारा वायु-वृत्ति को निरुद्ध करके एकाग्रं मन से लेकर +धनुश्चिह्न्तर्गतग्रन् न्थः क. पुस्तके नास्ति ।