पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१२८

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

चतुर्दशोऽध्यायः १०६ पिशाचान्तः स विज्ञेयः स्वर्गस्थानेषु देहिनाम् । ब्राह्म तु केवलं सत्त्वं स्थावरे केवलं तमः ॥४० चतुर्दशानां स्थानानां मध्ये विष्टम्भकं रजः । मर्मसु च्छिद्यमानेषु वेदनार्तस्य देहिनः ॥४१ ततस्तु परमं ब्रह्म कथं विप्रः स्मरिष्यति । संस्कारात्पूर्वधर्मस्य भावनायां प्रनो(णो)दितः । । मानुष्यं भजते नित्यं तस्मान्नित्यं समादधेत् ४२ इति श्रोमहापुराणे वायुप्रोक्ते पाशुपतयोगनिरूपणं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ।१४। स्वर्ग में है । ब्राह्म सृष्टि में केवल सत्व है और स्थावर में केवल तम है ३६४० चतुर्दशविध सृष्टिस्थान के मध्य में केवल रज ही व्याप्त है। देहधारी सदा कष्ट से पीड़ित रहते हैं, जिससे उनका हृदय छिन्न- भिन्न हुआ रहता है, तब वे परब्रह्म का स्मरण किस प्रकार कर सकते हैं ? पूर्वं धर्म की भावना और संस्कार से प्रेरित होकर जीव मानव शरीर प्राप्त करता है; अत: वह नित्य परब्रह्म का ध्यान किया करे ।४१-४२॥ श्रीवयुमहापुराण का पाशुपतयागानरूपण नामक चौदह अध्याय समाप्त ॥१४॥