पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१२९

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११ वायुपुराणं अथ पञ्चदशोऽध्यायः शुपतयोगनिरूपणास्त्र वायुरुवाच चतुर्दशविधं कृतबुध्या संसरमण्डलम् । तथा समारभेत्कर्म संसारभयपीडितः ॥१ ततः स्मरति संसारं चक्रेण परिर्वाततः । तस्मात् सततं मुक्तो ध्यानतत्परयुञ्जकः २ तथा समारभेद्योगं यथाऽऽत्मानं स पश्यति । एष आद्यः परं ज्योतिरेष सेतुरनुत्तमः ॥३ विवृद्धो ह्य ष भतन न संभेदश्च शाश्वतः। तदेनं सेतुमात्मानमनि वै विश्वतोमुखम् ॥४ हृदिस्थं सर्वभूतानामुपासीत विधानवित् । हुत्वाऽष्टावाहुतीः सम्यक्शुचिस्तद्गतमानसः ॥५ वैश्वानरं हृदिस्थं तु यथावदनुपूर्वशः । अपः पूर्वं सकृत्प्राश्य तूष्णीं भूत्वा उपासते ६ प्राणायेति ततस्तस्य प्रथमा ह्याहुतिः स्मृता । अपानाय द्वितीया तु समानायेति चापरा ॥७ उदानाय चतुर्थीति व्यानायेति च पञ्चमी । स्वाहाकारैः परे हुत्वा शेषं भुञ्जीत कामतः ।८ अध्याय १५ पाशुपत-योगनिरूपण चयु बोले—प्राणी चौदह प्रकार के संसरमंडल को जानकर संसार के भय से डरता है हुआ सांसारिक कार्यों का सम्पादन करे । कालचक्र से परिवतत होकर ही वह संसार का स्मरण करता है यानी संसार में लिप्त होता है । इसलिये ध्यान तत्पर होकर सदा योगाराघन करना युक्त है । ऐसे योग का आरम्भ करे, जिससे कि आरमदर्शन प्राप्त हो । यही आत्मा आद्य और परम ज्योति है एवं संसरसागर से पार जाने के लिये उत्तम पुल है ।१-३। आत्मा के विवृद्ध यानी प्रकाशमान होने से जीवों का शाश्वत संभेद यानी सर्वदा का आवागमन रुक जाता है। इसलिये विधि को जानने वाले योगी सेतुस्वरूप, विश्वतोमुखअग्निष्ट और सव भूतों के हृदय में रहने वाली आत्मा की उपासना करे । शुद्ध होकर और आत्मा में मन लगाकर योगी उस हृदयस्य अग्नि में यथाविधि आठ आहुति का हवन कर एक बार जल से आचमन कर चुपचाप उपासना करे। उसकी पहिली आहुति प्राण के लिये, दूसरी अपान के लिये, तीसरी समान के लिये, चोथी उदान के लिये, पाँचवी व्यान के लिये है । सव के अन्त में स्वाहा भी कहनी चाहिये । इसके बाद शेष अन्न का यथेच्छ ।