पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१२६

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चतुर्दशोऽध्यायें १०७ पवनो हि यथा ग्राह्यो विचरन्सर्वमूर्तिषु । पुरि शेते तथाऽश्न च तस्मात्पुरुष उच्यते १६ अथ चेल्लुप्तधर्मातु सविशेषेश्च कर्मभिः। ततस्तु ब्रह्मयोन्यां वै शुक्रशोणितसंयुतम् ॥१७ स्त्रीपुमांस(पुंसयोःप्रयोगेण जायते हि पुनः पुनः । ततस्तु गर्भकाले तु कललं नाम जायते १८ कालेन कली(लं) चापि बुद्बुदश्च प्रजायते । मृत्पिण्डस्तु यथा चक्रुते चक्रवर्तेन पीडितः १e हस्ताभ्यां क्रियमाणस्तु विश्वत्वमुपगच्छति । एवमात्मास्थिसंयुक्तो वायुना समुदीरितः २० जायते मानुषस्तत्र यथा रूपं तथा सनः । वायुः संभवते तेषां धातात्संजायते जलम् ।।२१ जलात्संभवति प्राणः प्राणाच्छूनं विवर्धते । रक्तभागास्त्रयस्त्रिशच्छूत्रभागश्चतुर्दश २२ भागतोऽर्धपलं कृत्वा ततो गर्भ निषेव्यते । ततस्तु गर्भसंयुक्तः पञ्चभिर्वायुभिर्वेतः २३ पितुः शरीरात्प्रत्यङ्गं रूपमस्योपजायते । ततोऽस्य मातुराहारात्पीतलीढप्रवेशितम् २४ नाभिः स्त्रोतःप्रवेशेन प्राणाधरो हि देहिनम् । नव मासान्परिक्तृप्तः संवेष्टितशिरोधरः ।।२५ वेष्टितः सर्वगात्रैश्च अपर्यायक्रमागतः। नवमासोषितश्चैव योनिच्छिद्रदवङ्मुखः २६ ततस्तु कर्मभिः पापैनिरयं प्रतिपद्यते । असिपत्रवनं चैव शाल्मलीछेदभेदयोः २७ मे विचरणशील है और उसको भी रूप में बाँध लेते है उसी प्रकार सव के पुर मे भूतों हृदयाकाशरूपी शयन करने के करण वह पुरुष कहलाता है ।१५-१६॥ धर्महीन जीवगण विशेष प्रारब्ध कर्म के अनुसार वह ब्रह्म योनि में रजोवीर्यमय होकर माता-पिता के मिथुन कर्म द्वारा वारवार उत्पन्न होते है । में वे कलल में रहते है । फिर कुछ गर्भकाल पहले रूप काल वाद वह कलल चुबू हो जाता है । मिट्टी का लोंदा जिस तरह चाक पर घुमा-घुमा कर कुम्हार द्वारा दोनों हाथों से दबा कर गढा जाता है और विभिन्न रूप धारण कर लेता है, उसी प्रकार द्वारा वायु प्रेरित भी अस्थि युक्त होकर आत्मा होकर रूपानुकूल मन प्राप्त कर मानव रूप में उत्पन्न होता है। वायु सब का संभव यानी आश्रय स्थान है । वायु से जल होता है. जल से प्राण और प्राण से वीर्य उत्पन्न होता है । तीस भाग रज और चौवह भाग वीर्यं करीब आंध पल के परिमाण , में जब गर्भाशय में जाता है, तब गर्भ वन कर वह पंच वायु द्वारा आवृत हो जाता है । १७१३। पिता के शरीर के अनुरूप उसका रूप और प्रत्येक अंग उत्पन्न होते है एवं मात द्वारा खाये, पिये, चाटे गये द्रव्य रम के द्वारा-जो नभिरन्ध्र से वहाँ तक पहुंचता है–देहधरियों का प्राण टिका रहता है। वह नौ मास तक निःसामथ्र्यं सा पैर से लेकर सिर तक स्नायु द्वारा क्रम-हीन भाव से बंधा रहता है । इसी तरह नौ महीना रह कर वह अधोमुख होकर योनि 'छिद्र से उत्पन्न होता है ।२४२६। फिर पाप कर्म के कारण वहे नरक प्राप्त करता है । असिपत्रवन और शहमली नरक में उसका छेदन होता है, वह शोणित भोजन करता है, दुस्सहं झिड़कियाँ पाता है