पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१२५

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१०६ u७ गोभिर्मही संयतते पतत्रिणं महात्मानं परमर्मात वरेण्यम् । कविं पुराणमनुशासितारं सूक्ष्माच्च सूक्ष्मं महतो महान्तम् योगेन पश्यन्ति न चक्षुषा तं निरिन्द्रियं पुरुषं रुक्मवर्णम् । अलिङ्गिनं पुरुषं रुक्मवणं सलिङ्गिनं निर्गुणं चेतनं च ॥८ नित्यं सदा सर्वगतं तु शौचं पश्यन्ति युक्त्या ह्यचलं प्रकाशम् । तद्भावितस्तेजसा दीप्यमानः अ( नो )पाणिपादोदरपाश्र्वजिह्वः । अतीन्द्रियोऽद्यापि सुसूक्ष्म एकः पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः। नास्यास्त्यबुद्धे न च बुद्धिरस्ति स वेद सर्वं न च वेदवेद्यः १० तमाहुरग्यं पुरुषं महान्तं सचेतनं सर्वगतं ससूक्ष्मम् ११ तमाहुर्मुनयः सर्वे लोके प्रसवधमणीम्। प्रकृति सर्वभूतानां युक्तः पश्यन्ति चेतसा १२ सर्वतः पाणिपादान्तं सर्वतोक्षिशिरोमुखम् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥१३ युक्ता व योगेन चेशानं सर्वतश्च सनातनम् । पुरुषं सर्वभूतानां तस्माद्धयाता न मुह्यति ।।१४ (+भूतात्मानं महात्मानं परमात्मानमव्ययम् । सर्वात्मानं परं ब्रह्म तद्रं ध्यात्वा न मुह्यति) ॥१५ करने वाले, नियत गतिमान् परम गति, वरेण्य, महात्मा. कवि, अनुशासक, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म, स्थूल से भी स्थूल, निरिन्द्रिय, दिव्य पुरुष को योगी योग से देखते है न कि इन आँखों से । योगिगण योगबल से उन चेतनात्मक नित्य निर्गुण, अलक्ष्य परम पुरुष के सगुण, स्वर्णवर्ण, सर्वव्य।पी, शुचि और अचल प्रकाशमान् रूप का दर्शन करते है । वही एक अतीन्द्रिय सुसूक्ष्म परमपुरुप भावनात्मक तेज प्रभव से दीप्यमान है, जिसको पाणि-पाद-उदरपाश्र्व और जिह्वा नही है । वे चक्षु विहीन होकर भी देखते हैं, कणं हीन होकर भी सुनते है । इनसे कुछ अज्ञात नही है; यद्यपि इन्हें वृद्धि नहीं है। ये सब कुछ जानते हैं परन्तु इन्हें वेद भी नहीं जान पाते है । इसी सर्वगत, अतिसूक्ष्म सचेतन महापुरुप को ही सर्वाग्रवर्ती परम पुरुष कहा जाता है ।६-११। मुनियो ने इन्ही को सम्पूर्ण लोकों और जीवों को प्रसव करने वाली प्रकृति कहा है । योगी इन्हीं को ध्यान से देखते हैं । इनके पाणिपाद सभी जगह है, आंखसिर मुंह और कान भी सब जगह हैं एवं सभी को आवृत करके ये स्थित है ।१२-१३। ध्यान योग द्वारा इस सर्वगत, सनातन, सर्वभूतेश परम पुरुष को प्रस्पक्ष करने पर ध्यान करने वाला मोह ग्रस्त नही होता है ।१४। भूतात्मा, महारमा परमात्मा, सर्वात्मा और अव्यय परब्रह्म का ध्यान करने पर मोह नही होता है । वायु जिस तरह सब भूतों + धनुदिचह्नान्तर्गग्रन्थो घ. पुस्तके नास्ति ।