पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/१२४

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चतुर्दशोऽध्यायः १०५ अथ चतुर्दशोऽध्यायः पाशुपक्षयोगनिरूपणम् वायुर्वाच ॥१ २ ३ न चैवमागतो ज्ञानाद्रागात्मर्म समाचरेत् । राजसं तमसं वाऽपि भुक्त्वा तत्रैव युज्यते तथा सुकृतकर्मा तु फलं स्वर्गे समश्नुते । तस्मात्स्थानात्पुनश्नष्टो मानुष्यसनुपद्यते तस्माद्ब्रह्म परं सूक्ष्मं ब्रह्म शाश्वतमुच्यते । ब्रह्म एव हि सेवेत ब्रह्म व परमं सुखम् परिश्रमस्तु यज्ञानां महताऽर्थेन वर्तते । भूयो मृत्युवशं याति तस्मान्मोक्षः परं सुखम् अथ वै ध्यानसंयुक्तो ब्रह्मयज्ञपरायणः । न च स्याद्व्यापितुं शक्यो मन्वन्तरशतैरपि दृष्ट्वा तु पुरुषं दिव्यं विश्वास्यं विश्वरूपिणम् । विश्वपादशिरोग्रीवं विश्वेशं विश्वभावनम् विश्वगन्धं विश्वमायं विश्वाम्बरधरं प्रभुम्। ४ ५ ॥६ अध्याय १४ पाशुपत योग निरूपण घयु वोले—इस प्रकार ब्रह्मतत्त्व ज्ञान से रहित प्राणी रागवश राजस और तामस कमों के आचरण से फिर उन्हीं में लिप्त हो जाते है और सुकृत करने वाले स्वर्गे लाभ करते हैं । वे फल-भोग करने के उपरान्त पुनः भ्रष्ट होकर मानव जन्म प्राप्त करते हैं । इस कारण अत्यन्त सूक्ष्म जो परब्रह्म है वही सर्वकालीन है, इसलिये ब्रह्म का ही सेवन करना चाहिये । उसी में परम सुख निहित है ।१-६। अत्यन्त परिश्रम और बहुव्यय करने से यज्ञ सम्पन्न होता है; किन्तु उससे भी मृत्यु का निराकरण नहीं होता है; इसलिये मोक्ष ही परम सुख है। ध्यानसंयुक्त ब्रह्मयज्ञ परायण व्यक्ति सौ मन्वन्तरों तक प्रयत्न करने पर भी किसी के द्वारा (मृत्यु के द्वारा) सीमित नहीं होता है ।४-५। विश्वाख्य, विश्वरूपी, विश्वपादशिरोग्रीव विश्वेश, विश्वभावन) विश्वगन्ध, विश्वमाल्य, विश्वाम्बरघर, प्रभु, अपन किरण से भूमण्डल का संयमन फा०-१४