पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११७

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६८ सर्वज्ञव विधिज्ञश्च योगी चोन्मत्तवद्भवेत् । यक्षराक्षसगन्धर्वान्वीक्षते दिव्यमानुषान् वेति तांश्च महायोगी उपसर्गस्य लक्षणम् । देवदानवगन्धर्वानृषींश्चापि तथा पितृन् ॥१० प्रेक्षते सर्वतश्चैव उन्मत्तं तं विनिर्दिशेत् । भ्रमेण भ्राम्यते योगी चोद्यमानोऽन्तरात्मना । ११ वर्तमानान्तबुद्धेस्तु ज्ञानं सर्वं प्रणश्यति । (*वार्ता नाशयते चित्तं चोद्यमानोऽन्तरात्मना ।।१२ वर्तनानान्तबुद्धेस्तु सर्वं ज्ञानं प्रणश्यति) । प्रवत्य मनस युक्तं पटं वा कम्बलं तथा १३ ततस्तु परमं ब्रह्म क्षिप्रमेवानुचिन्तयेत् । तस्माच्चैवाऽऽत्मनो दोषांस्तूपसर्गातुपस्थितान् ॥१४॥ परित्यजेत मेधावी यदीच्छेत्सिद्धिमात्मनः। ऋषयो देवगन्धर्वा यक्षोरगमहासुराः १५ उपसर्गेषु संयुक्ता आवर्तन्ते पुनः पुनः । तस्माद्युक्तः सदा योगी लघ्वाहारो जितेन्द्रियः १६ तथा सुप्तः सुसूक्ष्मेषु धारणां मूध्नि धारयेत् । ततस्तु योगयुक्तस्य जितनिद्रस्य योगिनः ॥१७ उपसर्गाः पुनश्चान्ये जायन्ते प्राणसंज्ञकाः। पृथिवीं धारयेसत् ततश्वापो ह्यनन्तरम् १८ ततोऽर्न चैव सर्वेषामाकाशं मन एव च । ततः परां पुनर्मुद्धि धारयेद्यत्नतो यती ॥१६ सिीनां चैव लिङ्गनि दृष्ट्वा दृष्ट्वा परित्यजेत् । पृथ्वीं धारयमाणस्य मही सूक्ष्मा प्रवर्तते ॥२० है ।६-८६ यक्ष, राक्षस गन्धर्व आदि दिव्य दर्शन योगियों के लिये विघ्नस्वरूप हैं । योगी जब सब दिशाओं में देव, दानव, गन्धर्व ऋषि और पितरों को देखने लगते हैं, तब वे उन्मत्त हो जाते हैं ।8-१०६। भ्रान्त योगी भ्रमवश अन्तरात्मा द्वारा विविध विषय की ओर प्रेरित होने पर भूल जाते है । भ्रम से उनकी बुद्धि मारी जाती है और उनका ज्ञान नष्ट हो जाता है । अन्तरात्मा द्वारा प्रेरित होने पर वार्ता (?) चित्त को नष्ट कर देती है और उससे बुद्धि भ्रष्ट हो जाने पर सव ज्ञान नष्ट हो जाता है ।११-१२३। ऐसा होने पर शीघ्र ही 'उज्ज्वल वस्त्र या कम्बल से शरीर को ढक कर मन ही मन परब्रह्म का ध्यान करे। इसलिये सिद्ध चाहने वाला मेधावी योगी आरमजनित दोष और उपस्थित उपसर्गों को दूर कर दे १३१४ । , ऋषि. देव, गन्धर्व यज्ञ, उरग, महसुर आदि उपसर्ग के वशीभूत होकर बारवार उसी में फंसे रहते हैं; इसलिये योगी जिते- न्द्रिय होकर थोड़ा खय, निद्रा को.जीते और मूर्धा में सूक्ष्म की धारणा फरे । इन्द्रिय को जीतनेवाले जो योगयुक्त योगी है उन्हें फिर प्राणसंज्ञक उपसर्ग होता है। ऐसा होने पर पहले योगी सम्पूर्ण पृथ्वी की धारण करे । अनन्तर अग्नि, सम्पूर्ण आकाश, मन और परा बुद्धि की यत्नपूर्वक धारणा करे । सिद्धि-को लक्षण देखकर उनका फिर एक-एक कर त्याग करता जाय ॥१६१७३।

  • धनुश्चिह्न्तर्गतग्रन्यो ध. पुस्तके नास्ति ।