पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११६

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द्वादशोऽध्यायः ६७ अथ द्वादशोऽध्यायः योगोपसर्गकथनम्न सुत उवाच अत ऊध्वं प्रवक्ष्यामि उपसर्गा यथा तथा । प्रादुर्भवन्ति ये दोषा दृष्टतत्त्वस्य देहिनः १ मानुष्यान्विविधान्कामान्कामयेत ऋतुं स्त्रियः । विद्यादानफलं चैव अपसृष्टस्तु योगवित् ॥२ अग्निहोत्रं हविर्यज्ञमेतत्प्रतपनं तथा । मायाकर्म धनं स्वर्गमुपसृष्टस्तु काङ्क्षति ३ एषु कर्मसु युक्तस्तु सोऽविद्यावशमागतः। उपसृष्टं तु जानीयाबुद्धया चैव विसर्जयेत् नित्यं ब्रह्मपरो युक्त उपसर्गात्प्रमुच्यते । जितप्रत्युपसर्गस्य जितश्वासस्य देहिनः ५ उपसर्गाः प्रवर्तन्ते सात्त्वराजसतामसाः। प्रतिभा श्रवणे चैव देवानां चैव दर्शनम् ॥६ भ्रमावर्तश्च इत्येते सिद्धिलक्षणसंज्ञिताः । विद्या काव्यं तथा शिल्पं सर्ववाचकृतानि तु विद्यार्थाश्चोपतिष्ठन्ति प्रभावस्यैव लक्षणम् । शृणोति शब्दाञ्श्रोतव्यान्योजनानां शतादपि ॥८ ४ ७ अध्यय १२ योगोपसर्गा । । सुनजी बोले—तत्त्वदृष्टि-सम्पन्न योगियों को जो उपसर्ग (रोग) होता है, उसे अब हम यथायोग्य इसके आगे कहते हैं। मनुष्योचित विविध कामना स्त्री प्रसङ्गाभिलाषपुत्रोत्पादनेच्छा, विद्यादानअग्निहोत्र, हविर्यज्ञ, अन्य तपस्या आदि, कपट, घनार्जन. स्वर्गस्पृहा आदि वस्तुओं में यदि योगी पुरुष आसक्त हो गये तो वे अविद्या के वशीभूत हो जायेंगे इन्हे उपसर्ग या विघ्न समझकर योगिजन इनका विवेचन कर निराकरण करे । प्रतिदिन ब्रह्मनिष्ठ होकर योगाभ्यास करने से ये दोष नष्ट हो जाते हैं । इन उपसर्गों को और श्वास को जीतने वाले योगियों को सात्विक, राजस और तामस विघ्न उपस्थित होते हैं ।१५१ हर की ध्वनि सुनने की शक्ति, देवताओं का दर्शन और अभ्रान्ति, सिद्ध का लक्षण कहा गया है । विद्या, कवित्व, शिल्पनैपुष्प, सब भाषाओं का बोध और विद्या T का तत्त्वज्ञान सुनने योग्य शब्दों को सो योजन दूर से भी सुन ले, सर्वज्ञ हो, विधिज्ञ भी हो और उन्मत की तरह रहता हो यह योग प्रभाव का लक्षण फा०--१३