पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११८

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॥२२ +आत्मानं मन्यते नित्यं पृथ्वीगन्धश्च जायते । आपो धारयमाणस्य आपः सूक्ष्मा भवन्ति हि ।।२१ शता रसाः प्रवर्तन्ते सूक्ष्मा ह्यमृतसंनिभाः। तेजो धारयमाणस्य तेजः सूक्ष्मं प्रवर्तते (४आत्मानं मन्यते तेजस्तद्भावमनुपश्यति । = वायं धारयमाणस्य वायुः सूक्ष्मः प्रवर्तते ॥२३ आरमानं मन्यते वायु वायुवन्मण्डलं भ्रमेत् । आकाशं धारयमाणस्य व्योम सूक्ष्मं प्रवर्तते) ॥२४ | पश्यते मण्डलं सूक्ष्मं घोषश्चास्य प्रवर्वते । () आत्मानं मन्यते नित्यं वायुः सूक्ष्मः प्रवर्तते ॥२५ तथा मनो धारयतो मनः सूक्ष्मं प्रवर्तते । मनसा सर्वभूतानां मनस्तु विशते हि सः { बुद्धचा बुद्धि यदा युञ्जेत्तदा विज्ञाय बुध्यते । एतानि सप्त सूक्ष्माणि विदित्वा यस्तु योगवित् ॥२७ परित्यजति मेधावी स बुद्धचा परमं व्रजेत् । यस्मिन्यस्मिश्च संयुक्तो भूत ऐश्वर्यलक्षणे २८६ तत्रैव सङ्गं भजते तेनैव प्रविनश्यति । तस्माद्विदित्वा सूक्ष्माणि संसक्तानि परस्परम् २६ ॥२६ पृथ्वी की धारणा करने से पृथ्वीतत्व सूक्ष्म रूप से उसमें प्रविष्ट हो जाता है। योगी उस समय अपने को नित्य पृथ्वी मय समझे । ऐसा करने से उसके शरीर से उत्तम गन्ध निकलने लगती है। जल की धारणा करने से जल का सूक्ष्म तत्त्व उसमें प्रवेश करता है ।२०२१। और अमृततुल्य शीतल सूक्ष्म रस उसके शरीर से प्रवाहित होने लगता है । तेज की धारणा करने से तेज सूक्ष्म रूप से उसमें संक्रन्त हो जाता है ।२२। योगी अपने को तेजोमय समझने लगता है और उस भाव को देखता भी है। वायु की धारणा से वायु सूक्ष्म भाव से संक्रान्त हो जाता है। योगी अपने को वायु समझता है और वायु की तरह वायुमण्डल में भ्रमण करने लगता है । आकाश की धारण करने से सूक्ष्म आकाशसंक्रान्त होता है ।२३-२४और योगी नादसम्पन्न होकर उसके सूक्ष्म मण्डल को देखने लगता है । वायु को धारण करने वाला योगी अपने को वायुमय, नित्य

समझने लगता है और वायु सूक्ष्म रूप से उसमें संक्रांत हो जाता है ।२५। मन की धारणा करने से मन सूक्ष्म

होकर संक्रप्त होता है और योगी अपने मन से सब के मन में प्रवेश कर जाता है । बुद्धि द्वारा जव बुद्धि की धारणा की जाती है तब योगी समस्त तत्स्वबोध में समर्थ होते है । इन सप्त सूक्ष्मों को जानकर भी जो योगवित् मेधावी . इनका परित्याग कर देते हैं, वे बुद्धिगुण से परम तत्व को प्राप्त करते हैं ।२६-२७३। योगी जिस किसी ऐश्वर्यजनक भूत से आसक्त होते हैं और उसका सेवन करते हैं, उसी के साथ उनका विनाश हो जाता है ।२८३ ।। जो ब्राह्मण परस्पर संसक्त सूक्ष्म भूत समूह का परित्याग करते हैं, वे परम तत्त्व को प्राप्त + इदमर्घ नास्ति क पुस्तके ।x धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थो घ पुस्तके नास्ति । = इदमर्घ नास्ति क. पुस्तके । () इदमर्घ ख , ग, घङ. पुस्तकेषु नास्ति ।