पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११५८

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द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः पाण्डुशिला वै तत्राऽऽस्ते श्राद्धं यत्राक्षयं भवेत् | युधिष्ठिरस्तु तस्यां हि श्राद्धं कर्तुं ययौ मुने तत्र काले पाण्डुनोक्तं मद्धस्ते देहि पिण्डकम् । हस्तं त्यक्त्वा शिलायां च पिण्डदानं चकार सः शिलायां पिण्डदानेन प्रहृष्टो व्यासनन्दनः । वरं ददौ स्वपुत्राय राज्यं कुरु महीतले अकण्टकं तु संपूर्ण त्वं मे त्राता हि पुत्रक स्वर्ग व्रज शरीरेण भ्रातृभिः परिवारितः । दृष्टिमात्रेण संपूतान्नरकस्थान्दिवं नय इत्युक्त्वा प्रययौ पाण्डुः शाश्वतं पदमव्ययम् । मतङ्गस्य पदे श्राद्धी ब्रह्मलोकं नयेत्पित्न् निर्मथ्याग्नि शमीगर्भे विधिविष्ण्वादिभिः सह | लेभे तीर्थं तु यज्ञार्थ त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् मखसंज्ञं तु तत्तोर्थं पितॄणां मुक्तिदायकम् । स्नात्वा च तर्पणं कृत्वा पिण्डदो मुक्तिप्राप्नुयात् षित न्स्वर्गं नयेन्नत्वा संगमेऽङ्गारकेश्वरौ । गयाकूटे पिण्डदानादश्वमेधफलं लभेत् ११३७ ॥४४ ॥४५ ॥४६ ॥४७ ॥४८ ॥४६ ॥५० ॥५१ ॥५२ ● पर किया गया श्राद्धकर्म अक्षयफलदायी होता है । मुनि नारद जी ! प्राचीनकाल में उस शिला पर जब युधिष्ठिर श्राद्ध करने के लिये गये थे उस समय स्वयं पाण्डु ने आकर कहा कि पुत्र ! मेरे हाथों पर पिण्ड प्रदान करो । किन्तु उन्होंने हाथ को छोड़कर शिला पर ही पर पिण्ड प्रदान किया । शिला पर पिण्ड प्रदान करने से व्यासनन्दन पाण्डु को परम हर्ष प्राप्त हुआ। उन्होंने अपने पुत्र को वरदान दिया कि पुत्र ! इस सम्पूर्ण पृथ्वीतल पर तुम निष्कण्टक राज्य करो, तुम मेरे उद्धारक हो ।४४-४७ अपने भाइयों के साथ तुम सदेह स्वर्ग जाओ और अपनी दृष्टि मात्र से नरक निवासियों को पवित्र कर स्वर्ग प्राप्त कराओ ।' ऐसा कहकर पाण्डु अव्यय शाश्वत पद को चले गये । मतङ्ग के चरणों पर श्राद्ध करनेवाला अपने पितरो को स्वर्ग लोक प्राप्त कराता है । विष्णुप्रभृति प्रमुख देवगणों के साथ ब्रह्मा जी ने शमी के गर्भ से मथकर यज्ञ के लिये अग्नि प्रकट को, इसीलिये वह तीर्थ तीनों लोको में परम विख्यात हुआ । पितरों को मुक्ति प्रदान करनेवाला वह पुनीत तीर्थ मखतीर्थं के नाम से ख्यात हुआ, वहां पर स्नान कर पिण्डदान करनेवाला मनुष्य मुक्ति प्राप्त करता है ।४८-५१। संगम पर स्थित अङ्गारक एवं महादेव को नमस्कार कर मनुष्य अपने पितरों को स्वर्ग प्राप्त कराता है । गया कूट मे पिण्डदान करने से अश्वमेघयज्ञ का फल प्राप्त होता है । भस्मकूट में भस्मनाथ को नमस्कार कर मनुष्य अपने पितरों का उद्धार करता है । संगम मे स्नान करनेवाला अपने पापों से रहित होकर मुक्त हो जाता है । मुनिवर वशिष्ठ ने वहां पर एक अश्वमेध यज्ञ किया था, उस यज्ञ से शम्भु उत्पन्न होकर वशिष्ठ से बोले कि वरदान माँगो । वशिष्ठ ने कहा, शम्भु देव ! यदि आप सचमुच हमारे ऊपर प्रसन्न हैं, तो आप यही पर निवास करें । 'ऐसा ही होगा' कह कर शिव वहाँ विराजमान हो गये ३५२-५५। धेनुकारण्य में फा०-१४३