पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११५९

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११३८ वायुपू (ऋनां ॥५३ ॥५४ . भस्मकूटे भस्मनपूर्ण तत्वा च तारयेत्पितॄन् । त्यत्तपो भवेन्मुक्त: संगमे स्नानमाचरेत् इष्टि चक्रेऽश्वमेधयां वशिष्ठो मुतिमातमः इष्टितो निर्गतः शंभुर्वरं वृणु वशिष्ठकम् प्राहेति तं वशिष्ठोऽपि शिव-तुति में यदि । वस्तव्यं चात्र देवेश तथेत्युक्त्वा शिवः स्थितः] ॥५५ पिण्डदो धेनुकारण्ये कामधेनुपदेषु च | स्नात्वा नत्वाऽथ संपूज्य ब्रह्मलोकं नयेत्पितॄन् कर्दमाले गयानाभौ मुण्डपृष्ठसमीपतः । स्नात्वा श्रद्धादिकं कृत्वा पितॄणामतॄणो भवेत्* फल्गुचण्डोश्मशानाक्षी मङ्गलाद्याः समर्चयेत् । गयायां च वृषोत्सर्गात्त्रिः सप्तकुलमुद्धरेत् ॥ यत्र यत्र स्थिता देवा ऋषयोऽपि जितेन्द्रियाः ॥५६ ॥५७ आद्यं गदाधरं ध्यायञ्श्राद्धपिण्डादिदानतः । कुलानां शतमुद्धृत्य ब्रह्मलोकं नयेत्पितॄन् गयागयो गयादित्यो गया गायत्री च गदाधरः । गया गयासुरश्चैव षड्गया मुक्तिदायिकाः गयाख्यानसिदं पुण्यं यः पठेत्सततं नरः । शृणुयाच्छ्रद्धया यस्तु स याति परमां गतिम् + [ x पाठयेद्वा गयाख्यानं विप्रेभ्यः पुण्यकृन्नरः । गयाश्राद्धं कृतं तेन कृतं तेन सुनिश्चितम् ॥५८ ॥५६ ॥६० ॥६१ ॥६२ कामधेनु के पद चिह्नों पर पिण्डदान करनेवाला वहाँ पर स्नान एवं नमस्कार करके अपने पितरों को ब्रह्मलोक प्राप्त कराता है । मुण्डपृष्ठ के समीप गयासुर के नाभिप्रदेश में कदंमाल नामक तीर्थ है, वहाँ पर स्नान करने तथा श्राद्धादि सम्पन्न करनेवाला अपने पितरों के ऋण से मुक्त हो जाता है ।५६-५७१ वहीं पर विराजमान फल्गु, चण्डी, श्मशानाक्षी एवं मङ्गला आदि देवियों की पूजा करनी चाहिये । गया में वृपोत्सगं करनेवाला इक्कीस कुलों का उद्धार करता है । इस पुनीत गया तीर्थ में जहां देवताओं का निवास है, वही पर जितेन्द्रिय ऋषिगण भी विराजमान रहते है |५८| आदि गदाधर देव का ध्यान करते हुए श्राद्ध एवं पिण्डादि का दान करनेवाला अपने सो कुलों का उद्धार कर समस्त पितरगणों को ब्रह्मलोक प्राप्त फराता है । गयागय, गयादित्य, गायत्री, गदाघर, गया, एवं गयासुर - ये छः गया मुक्ति प्रदान करनेवाली हैं । जो मनुष्य इस पुण्यप्रद गयाख्यान को सर्वदा पढ़ता है, अथवा जो श्रद्धापूर्वक इसका श्रवण करता है, वह परम गति को प्राप्त होता है । जो पुण्यशाली मनुष्य ब्राह्मणों द्वारा इस पुण्यप्रद गयाख्यान का पाठ करवाता है, वह निश्चित रूप से गया श्राद्ध करता है । जो मनुष्य समहित चित्त होकर गया को अनुपमेय महिमाओ का चिन्तन करता है, नारद जी !

  • एतदग्रेऽधिकं श्लोकद्वयं वर्तते ख. पुस्तके तद्यथा --

मुण्डपृष्टां नमेद्देवी क्षेत्रपालादिसंयुताम् । पूजयित्वाऽभयं तस्माद्विषरोगादिनाशनीम् ॥१ कामपीठि च कामाक्षा (क्षी) पूजयेत्कामरूपिणीम् । सर्वसौभाग्यकामो हि देवी विन्ध्यनिवासिनीम् ॥ इति ॥२

  • इत आरभ्य न विद्यत इत्यन्तं पाठव्यत्यासः ख पुस्तके | + एतच्चिह्नान्तर्गत ग्रन्थ ख पुस्तके न ।