पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११५७

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

( ११३६ वायुपुराणम् मरीचिः फलपुष्पार्थं पारिजातवनं गतः । इष्ट्वा शप्तो महेशेन यत्मात्सुखविघातकः दुःखो भवेति तद्भोतो मरोचिस्तुष्टुवे शिवस् | तुष्टः प्रोवाच तं शंभुवृणीष्व वरमुत्तमम् शापाद्भवतु मुक्तिम मरीचिः प्राह शंकरम् | भवेद्गयायां मुक्तिस्ते शिवोक्तः प्रययौ गयाम् शिलास्थितस्तपस्तेपे सर्वेषां दुष्करं च यत् । मरीचिरीश्वराच्छप्तः कृष्णत्वमगमत्पुरा ॥ तपसा दारुणेनेह स विप्रः शुक्लतां गतः हरिरूचे मरीचि च वरं वृणु हि पुत्रक । किमलभ्यं त्वयि तुष्टे मरीचिः प्राह माधवम् हरशापाद्विमुक्तोऽहं शिला भवतु पावनी | पितृमुक्तिकरी च स्यात्तयेत्युक्त्वा दिवं गतः दिवौकसां पुष्करिणों समासाद्य नरः शुचिः | यत्र दत्तं पितृभ्यस्तु भवत्यक्षयमित्युतः तत्र स्नातो दिवं याति स्वशरीरेण मानवः | पाप्मानं प्रजहात्येष जीर्णत्वचमिवोरगः ॥ तत्पङ्कजवनं पुण्यं पुण्यकृद्भिनिषेवितम् ॥३६ ॥३७ ॥३८ ॥३ ॥४० ॥४१ ॥४२ G + + Y i 1 + } i ॥४३ | 1 महादेव जी पर्वती के साथ दस सहस्र युगों तक रहस्यक्रीडा कर रहे थे । संयोगतः फलपुष्पादि चुनने के लिये मरीचि ऋषि उसी पारिजात वन में गये । अपने सुख में विघातक होने के कारण महेश ने मरीचि को शाप दे दिया कि तुम दुःख का अनुभव करो । शापभय से भीत होकर मरीचि ने शङ्कर की स्तुति से सन्तुष्ट होकर शिवजी ने कहा कि कोई उत्तम वरदान मांगो | ३५-३७॥ मरीचि ने शिव से निवेदन किया कि भगवन् । इस शाप से मेरी मुक्ति हो - यही प्रार्थना है । शिव ने कहा कि जाओो तुम्हारी मुक्ति गयातीर्थं में जाने से होगी । शिव के आदेशानुसार मरीचि गया को प्रस्थित हो गये । और वहां जाकर शिला पर स्थित होकर परम कठोर तपस्या करनी शुरू की । उसे सभी लोग कठिनता से कर सकते थे । महादेव के शाप से जो मरीचि पूर्वकाल में कृष्णवर्ण के हो गये थे वे ही अपने इस कठोर तप के माहात्म्य से शुक्लवर्ण हो गये |३८-३९६ हरि ने मरीचि से कहा, पुत्र ! कोई वरदान मांगो, मरीचि ने माधव से निवेदन किया, भगवन् ! आप के सन्तुष्ट हो जाने पर संसार में कौन-सी वस्तु ऐसी है, जो अलभ्य हो मैं जिस शिला पर तपकर शिव शाप से विमुक्त | हुआ हूँ, वह शिला परम पुनीत हो जाय, पितरों की मुक्तिदायनी बन जाय | मरोचि को प्रार्थना को अङ्गीकार करा भगवान् स्वर्ग को चले गये । स्वर्गं निवासी देवगणों को पुष्करिणी के पास पहुँच कर मनुष्य परम पवित्र हो जाता है । वहाँ पर दान देने से पितरों को अक्षयफल की प्राप्ति होती है वहाँ पर स्नान करनेवाला प्राणी सदेह स्वर्ग प्राप्त करता है, अपने समस्त पापकर्मों को वह सर्प के केंचुल को भाँति छोड़ देता है । वहाँ मनोहर पंकजवन पुण्यशील जनों से सुसेवित है |४०-४३। वहीं पर पुनीत पाण्डुशिला भी है, जिस ļ