पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११४८

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एकादशाधिकशततमोऽध्यायः ततः स्वमातरं शान्तां पप्रच्छ स महामुनिः | कश्यपश्य पदे दिव्ये शुक्ले कृष्णेऽथ वा करे || पिण्डो देयो मया मातर्जनासि पितरं वद शान्तोवाच भारद्वाज महाप्राज्ञ देहि कृष्णाय पिण्डकम् | भारद्वाजस्ततः पिण्डं दातुं कृष्णाय चोद्यतः श्वेतोऽदृश्योऽब्रवीत्तत्र पुत्रस्त्वं हि मसौरसः | कृष्णीऽनश्रीन्मम क्षेत्रं ततो मे देहि पिण्डकम् स्वैरिण्यथाब्रवीद्दातुं क्षेत्रिणे बोजिने ततः | भारद्वाजस्ततः पिण्डं कश्यपस्य पदे ददौ + ॥ + हंसयुक्तविमानेन ब्रह्मलोकमुभौ गतो रामो रुद्रपदे श्राद्धे पिण्डदानाय चोद्यतः । पिता दशरथः स्वर्गात्प्रसार्य करमागतः नादात्पिण्ड करे रामो ददौ रुद्रपदे ततः । शास्त्रार्थातिकमानीतं रामं दशरथोऽब्रवीत् तारितोऽहं त्वया पुत्र रुद्रलोकमवाप्नुयाम् | हस्ते पिण्डप्रदानेन स्वर्गतिर्न हि मे भवेत् १९२७ ॥६१ + अत्राध्यायसमाप्तिदृ श्यते ख. पुस्तके | पाठो नास्ति ख. पुस्तके | ॥६२ ॥६३ ॥६४ ॥६५ ॥६६ ।। ६७ दिव्य चरणों में ये शुक्ल एवं कृष्ण वर्ण के जो दो हाथ निकले हुये है, उनमें से मुझे किस हाथ में पिण्डदान करना चाहिये । तू पितरों के कार्यों को भली-भांति जानती हो, अतः मेरा संशय दूर करो |५८-६१। शान्ता बोली- भारद्वाज ! तुम परम बुद्धिमान् हो, श्यामल हाथ में पिण्डदान करो । माता के आदेशानुसार भारद्वाज श्यामत्त हाथ में जब पिण्डदान करने को उद्यत हुए तो श्वेत हाथ अदृश्य हो गया, और बोला कि तू तो मेरा औरस पुत्र है । अतः मुझे पिण्डप्रदान करो । कृष्ण हाथ ने कहा, मेरा क्षेत्र है, इस लिए मुझे पिण्ड प्रदान करो | तब स्वैरिणी माता ने कहा पुत्र ! क्षेत्राधिकारी एवं बीजाधिकारी दोनों को पिण्ड प्रदान करो । तव भारद्वाज ने कश्यप के चरणों में पिण्ड प्रदान किया। जिसके महात्म्य से वे दोनों ब्रह्मलोक को प्राप्त हुए |६२-६४। इसी प्रकार रुद्र के चरणों में रामचन्द्र जी पिण्डदान के लिए जब समुद्यत हुये तो उनके पिता दशरथ स्वर्ग लोक से हाथ फैलाये हुये आ गये । किन्तु राम ने हाथ में पिण्डदान न करके रुद्रपद में ही पिण्डदान किया | शास्त्रीय मर्यादा भङ्ग होने के भय से भीत राम से दशरथ ने कहा, पुत्र ! मैं तार दिया गया, अब शङ्कर के लोक को जा रहा हूँ | सचमुच हाथ में पिण्डदान करने से हमें स्वर्ग- प्राप्ति न होती ।६४-६७१ तुम भी चिरकाल तक राज्य करके, समस्त प्रजावगं एवं ब्राह्मणों का विधिवत् पालन → हंसयुक्त विमानेनेत्यारम्य वन्दे श्रीप्रपितामहमित्यन्त