पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११४९

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११३८ वायुपुराणम् ॥६६ त्वं च राज्यं चिरं कृत्वा पालयित्वा द्विजान्प्रजाः । यज्ञान्सदक्षिणात्कृत्वा विष्णुलोकं व्रजिष्यसि ||६८ पुर्ययोध्याजनैः सार्धं कृमिकीटादिभिः सह । इत्युक्त्वाऽसौ दशरथो रुद्रलोकं परं यथो भीष्मो विष्णुपदे श्रेष्ठे आहूय पितरं स्वकम् । श्राद्धं कृत्वोद्यतो दातुं पित्रादिभ्यश्च पिण्डकम् ॥७० पितुर्विनिर्गतौ हस्तौ गयाशिरसि शंतनोः । नादात्पिण्डं करे भीष्मो ददौ विष्णुपदे ततः शंतनुः प्राह संतुष्ट: शास्त्रार्थे निश्चलो भवान् | त्रिकालदृष्टिर्भवतु चान्ते विष्णुश्च ते गतिः स्वेच्छया मरणं चास्तु इत्युक्त्वा मुक्तिमागतः । कनकेशं च केदारं नारसिंहं च वामनम् ॥ उदङ्मार्गे समभ्यर्च्य पितॄन्सर्वाश्च तारयेत् ॥७१ ॥७२ ॥७३ गयाशिरसि यः पिण्डान्येषां नाम्ना तु निवपेत् । नरकस्था दिवं यान्ति स्वर्गस्था मोक्षमाप्नुयुः ॥७४ सर्वत्र मुण्डपृष्ठाद्रिः पदैरेभिः सुलक्षितः । प्रयान्ति पितरः सर्वे ब्रह्मलोकमनामयम् ॥७५ करके प्रचूर दक्षिणा युक्त अनेक यज्ञों का अनुष्ठान करके विष्णु लोक को प्राप्त करोगे । अयोध्या पुरी में निवास करने वाले लोगों के तथा कृमिकोटादिकों के साथ तुम्हें विष्णुलोक को प्राप्ति होगी। ऐसा कहकर राजा दशरथ परमश्रेष्ठ रुद्रलोक को चले गये १६८-६९। इसी प्रकार भीष्म ने परमश्रेष्ठ विष्णुपद पर अपने पितरों का आवाहन कर श्राद्ध करते समय पिण्डदान के लिए उद्यत हुए तो गया शिर पर उनके पिता राजा शन्तनु के दोनों हाथ बाहर निकल आये | किन्तु उन्होंने हाथो में पिण्डदान न देकर विष्णुपद पर हो पिण्डदान किया। उनके इस निश्चय से शन्तनु को बड़ा सन्तोष हुआ, वे बोले कि आप शास्त्रीय मर्यादा के पालन मे निश्चल विचार रखते हैं, आपको दृष्टि त्रिकाल दर्शनी हो, अन्तकाल में भगवान् विष्णु को गति प्राप्त हो । इच्छा करने पर मृत्यु की प्राप्ति हो, ऐसा कहकर शन्तनु मुक्ति को प्राप्त हुए । उत्तर मार्ग में कनकेश, केदार, नारसिंह और वामन को भली-भांति पूजा करके मनुष्य अपने समस्त पितरों का उद्धार करता है |७०-७३१ गयाशिर मे जाकर जिन जिनके नाम से मनुष्य पिंडदान करता है, यदि नरक में है तो स्वर्ग पहुँच जाते हैं, स्वर्ग में हैं तो मुक्ति प्राप्त करते है । देवताओं के चरणों से मुण्डपृष्ठाद्रि सर्वत्र चिह्नित है, वहीं पर श्राद्धादि करने पितरगण विविध ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं । असुरराज हेति का जो शिर था, वह उक्त गदा से दो

  • स्वर्गस्था मोक्षमाप्नुयुरित्यस्मात्परतः क. पुस्तकटिप्पण्यां श्लोकद्वयमधिकं वर्तते तद्यथा--

गयाशिरसि यः पिण्डं शमीपत्र प्रमाणतः । कन्दमूलफलाद्यैर्वा दद्यात्स्वर्ग नयेत्पितॄन् ॥ इति ॥ पदानि यत्र वृश्यन्ते विष्ण्णादीनां तदग्रतः । श्राद्धं कृत्वा सपिण्डं च तेषां लोकान्नयेत्पितॄन ||