पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११४७

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११२६ वायुपुराणम् आवसथ्यपदे श्राद्धी पितृन्ब्रह्मपुरं नयेत् । श्राद्धं कृत्वा शक्रपदे इन्द्रलोकं नयेत्पित्न अगस्त्यस्य पदे श्राद्धी पितॄन्ब्रह्मपुरं नयेत् । क्नौञ्चमातङ्गयोः श्राद्धी ब्रह्मलोकं नयेत्पितॄन् श्राद्धी सूर्यपदे पञ्च पापिनोऽर्कपुरं नयेत् । कार्तिकेयपदे श्राद्धी शिवलोकं नयेत्पितॄन् गणेशस्य पदे श्राद्धो रुद्रलोकं नयेत्पितॄन् । गजकर्णतर्पणकृन्निर्मलं स्वर्नयेत्पितॄन् अन्येषां च पदे श्राद्धी पितृन्ब्रह्मपुर नयेत् । सर्वेषां काश्यपं श्रेष्ठं विष्णो रुद्रस्य वै पदम् ॥ ब्रह्मणश्च पदं चापि श्रेष्ठं तत्र प्रकीर्तितम् प्रारम्भे च समाप्तौ च तेषामन्यतमं स्मृतम् । श्रेयस्करं भवेत्तत्र श्राद्धकर्तुश्च नारद कश्यपस्य पदे दिव्ये भारद्वाजो मुनिः पुरा | श्राद्धं कृत्वोद्यतो दातुं पित्रादिभ्यश्च पिण्डकम् शुक्लकृष्णौ ततो हस्तौ पदमुद्भिद्य निर्गती | दृष्ट्वा हस्तद्वयं तत्र मुनिः संशयमागतः ॥५३ ॥५४ ॥५५ ॥५६ ॥५७ ॥५८ ॥५६ ॥६० इसी प्रकार सभ्याग्नि चरण प्रदेश में श्राद्ध सम्पन्न करनेवाला व्यक्ति ज्योतिष्टोम नामक यज्ञ का फल प्राप्त करता है, आवसथ्य के चरण प्रदेश श्राद्ध करनेवाला अपने पितरों को ब्रह्मलोक पहुँचाता है। शक के चरण प्रदेश में श्राद्ध करनेवाला पितरों को इन्द्रलोक पहुँचाता है। अगस्त्य के चरण प्रान्त में श्राद्ध करनेवाला अपने पितरों को ब्रह्मलोक में पहुँचाता है । क्रौञ्च मातङ्ग के चरणों में श्राद्ध करनेवाला अपने पितरों को ब्रह्मलोक पहुँचाता है। सूर्य के चरण प्रान्त में श्राद्ध करनेवाला अपने पाँच पापों के करनेवाले पितरों सूर्यपुर को पहुँचाता है, कार्तिकेय के चरणों में श्राद्ध सम्पन्न करनेवाला अपने पितरों को शिवलोक पहुँचाता है ।५२-५५१ गणेश के चरणों में श्राद्ध करनेवाला अपने पितरों को शिवलोक पहुँचाता है । गजकर्ण नामक तीर्थ में तर्पण करने वाला मनुष्य अपने पितरों को स्वर्गलोक पहुँचाता है। इसी प्रकार आन्यान्य देवताओं के चरणों मे श्राद्धकर्म सम्पन्न करनेवाला अपने पितरों को ब्रह्मलोक पहुँचाता है। किन्तु सभी चरण प्रान्तों में भगवान् विष्णु, रुद्र, ब्रह्मा एवं कश्यप के चरण प्रान्त श्रेष्ठ कहे जाते हैं |५६-५७॥ नारद जी ! गया यात्रा के प्रारम्भ एवं अवसान काल में इन सवों में किमी एक में श्राद्ध करने का विधान कहा जाता है, वहाँ पर श्राद्ध करनेवाले को विशेषतया कल्याण-प्राप्ति होती है । प्राचीनकाल में कश्यप जी के दिव्य चरण प्रान्त में भारद्वाज मुनि पितरो के लिये श्राद्ध कर्म कर रहे थे, उसी समय जब कि वे पिण्डदान करने को उद्यत हुए थे, चरणो को फोड़कर श्यामल और गौर वर्ण के दो हाथ बाहर निकल पड़े। दोनों हाथों को इस प्रकार एकाएक बाहर निकला देख कृर भारद्वाज मुनि बड़े सन्देह में पड़ गये । और अपनी माता शान्ता से उन्होंने पूछा, जननि ! कृश्यप के