पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११३३

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१११२ वायुपुराणम् देवादींस्तर्पयित्वाऽथ श्राद्धं कृत्वा यथाविधि | स्ववेदशाखागदितमर्ध्यावाहनवजितम् अपरेऽह्नि शुचिर्भूत्वा गच्छेद्वे प्रेतपर्वते । ब्रह्मकुण्डे ततः स्नात्वा देवादींस्तर्पयेत्सुधीः कुर्याच्छ्राद्धं सपिण्डानां प्रयतः प्रेतपर्वते । प्राचीनावोतिना भाव्यं दक्षिणाभिमुखः सुधोः कव्यवाहोऽनलः सोमो यमश्चैवार्यमा तथा | अग्निध्वात्ता बहिषदः सोमपाः पितृदेवताः आगच्छन्तु महाभागा युष्माभी रक्षितास्त्विह | मदीयाः पितरो ये च कुले जाताः सनाभयः तेषां पिण्डप्रदानार्थंमागतोऽस्मि गयामिमाम् । ते सर्वे तृप्तिमायान्तु श्राद्धेनानेन शाश्वतीम् आचम्योक्त्वा च पश्चाङ्गं प्राणायामं प्रयत्नतः । पुनरावृत्तिरहितब्रह्मलोकाप्ति हेतवे एवं च विधिवच्छ्राद्धं कृत्वा पूर्वं यथाक्रमम् । पितॄनावाह्य चाभ्यर्च्य मन्त्रैः पिण्डप्रदो भवेत् तीर्थे प्रेतशिलादौ च चरुणा सघुतेन वा | प्रक्षाल्य पूर्वं तत्स्थानं पञ्चगव्यैः पृथक्पृथक् ॥ तैर्मन्त्रैरथ संपूज्य पश्चगव्यैश्च देवताम् ।।७ ॥८ HIE ॥१० ॥११ ॥१२ ॥१३ ॥१४ ॥१५ विधिपूर्वक देवादिकों का सर्पण एवं श्राद्ध कर अपनी कुल परम्परा में प्रचलित वेदशाखाका उच्चारण करना चाहिये । इसश्राद्धकर्म को अर्घ्य एवं आवाहन के बिना ही सम्पन्न करना चाहिये ॥५-७१ फिर दूसरे दिन पवित्र होकर प्रेतपर्वतको यात्रा करनी चाहिये, फिर ब्रह्म कुण्ड में स्नानकर बुद्धिमान् पुरुष को देवादिकों का तर्पण करना चाहिये । प्रेतपर्वत पर संयत मन हो सपिंडों का श्राद्धकर्म सम्पन्न करना चाहिये । इस कर्म में बुद्धिमान् पुरुष प्राचीना ? बीती और दक्षिणाभिमुख होना चाहिये १८६१ 'कव्यवाह, अग्नि, चन्द्रमा, यम, अर्थमा, अग्निष्वात्त, वर्हिषद और सोमपान करनेवाले पितृदेवगण ! महाभाग्यशालियो ! आप लोग यहाँ पधारें । इस तीर्थ में आप लोगों की कृपा से सुरक्षित जो हमारे पितरगण तथा हमारे फुल में उत्पन्न होनेवाले अन्याय पितरगण है, उन्ही को पिंडदान करने के लिए मैं गयापुरी में बाया हूँ | हमारे इस श्राद्धकर्म से वे चिरन्तन तृप्ति लाभ करें |१०-१२। ऐसी प्रार्थना करने के उपरान्त आचमन करके प्रयत्नपूर्वक पाँचों अङ्गों समेत प्राणायाम करके, पुनरागमन से विरहित ब्रह्मलोक की प्राप्ति के लिए विधिपूर्वक क्रमानुसार श्राद्ध कर्म सम्पन्न करना चाहिये । उस समय पितरों का आवाहनकर उनको विधिपूर्वक पूजा और मन्त्रों का उच्चारण कर पिंडदान करना चाहिये । प्रेत शिला आदि तीर्थ स्थानों में घृत समेत चरु से पिंडदान करना चाहिये । पञ्चगव्यो द्वारा उनके मन्त्रों से भली प्रकार उस स्थान को पवित्रकर मन्त्रों द्वारा देवताओं का पूजन करना चाहिये ।१३-१५॥ ॐ नास्त्यर्घ मिदं ख. पुस्तके | १. यज्ञोपवीत को दाहिने कंधे पर रखकर बाएं हाथ को बाहर निकालने की विधि | पितृकर्मों में इसका षायः प्रयोग होता है ।