पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११३२

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दशाधिकशततमोऽध्याय॥ अथ दशाधिकशततमोऽध्यायः गयामाहात्म्यम् सनत्कुमार उवाच गयायात्रां प्रवक्ष्यामि शृणु नारद मुक्तिदाम् । निष्कृतिः श्राद्धकर्तणां ब्रह्मणा गोयते पुरा उद्यतश्चेद्गयां गन्तुं श्राद्धं कृत्वा विधानतः । विधाय कार्पटीवेषं कृत्वा ग्रामप्रदक्षिणस् ततो ग्रामान्तरं गत्वा श्राद्धशेषस्य भोजनम् । ततः प्रतिदिनं गच्छेत्प्रतिसहनिर्वाजितः प्रतिग्रहादुपावृत्तः संतुष्टो नियतः शुचिः | अहंकारविमुक्तो यः स तीर्थफलमश्नुते यस्य हस्तौ च पादौ च मनश्चापि सुसंयतम् । विद्या तपश्च कीर्तिश्च स तीर्थफलमश्नुते ततो गयाप्रवेशे च पूर्वतोऽस्ति महानदी । तत्र तोये समुत्पाद्य स्नातव्यं निर्मले जले = ११११ पदे पदेऽश्वमेधस्य यत्फलं गच्छतो गयाम् । तत्फलं च भवेन्नित्यं समग्रं नात्र संशयः ||२|| ततो गयां समासाद्य स्नातव्यं तत्र निश्चयम् । इति । = इत उत्तरमधिकाः श्लोका मुद्रितपुस्तकटिपण्यामुपलभ्यन्ते ते च यथा - ॥१ ॥२ ॥३ ॥४ ॥५ ॥६ अध्याय १९० गया माहात्म्य सनत्कुमार बोले : – नारद जी ! गया यात्रा की विधि बतला रहा हूँ, जो मुक्ति की देनेवाली है, सुनिये । प्राचीनकाल में ब्रह्मा जी ने यह बतलाया था कि गया में श्राद्ध करनेवालों का इस भवबन्धन से निस्तार हो जाता है । विधिपूर्वक श्राद्धकर्म सम्पन्न कर जो व्यक्ति गया यात्रा के लिए उद्यत हो, उसे चाहिये कि सर्वप्रथम श्राद्धकर कोपीन धारणकर अपने ग्राम की प्रदक्षिणा करे, फिर दूसरे ग्राम में जाकर श्राद्ध से शेष अन्न का भक्षण करे, फिर दानादि न लेते हुए प्रतिदिन यात्रा करे । प्रतिग्रह से बचते हुए, सन्तुष्ट चित्त, इन्द्रियों को वस में कर पवित्र मन एवं शरीर से अहंकारादि को छोड़कर जो गया की यात्रा करता है वह तीर्थ का वास्तविक फल प्राप्त करता है |१-४॥ जिसके हाथ, पैर एवं मन संयत रहते हैं, विद्या, तप एवं कोर्ति की बहुलता रहती है, वह वास्तविक तीर्थ फल का उपभोग करता है । गया क्षेत्र में प्रविष्ट होने पर पूर्व दिशा से महा नदी पड़ती है, उसमें जल हिलोर कर निर्मल जल में स्नान करना चाहिये । फिर