पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११२८

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- नवाधिकशततमोऽध्यायः अहः श्रियं त्रिदशगणादिसुश्रियं भवश्रियं दितिभवदारणश्रियम् । कलिश्रियं कलिमलमर्दनश्रियं गदाधरं नौमि तमाश्रितश्रियम् दृढादृढं परिवृढगाढसंस्तुतं कामाद्भूतं सुदृढमरूढिरूढिगम् । तमाढयगं दृढदुरिताद्यढौकितं स्वढीकृतं दृढतरगोत्रसूक्तिभम् विदेहकं करणकलाविवर्जितं विजन्मकं दिनकरवेदिभूषितम् । गदाधरं ध्वनिमुखवर्जितं परं नमाम्यहं सततमनादिमीश्वरम् मनोतिगं मतिगतिवजितं परं सदाऽद्वयं स्तुतिशिरसि स्तुतं बुधैः । चिदात्मकं कलिगतकारणातिगं गदाधरं हृदयगतं नमामि तम् सनत्कुमार उवाच देवः सार्धं ब्रह्मणैवं स्तुतश्चाऽऽदिगदाधरः | ऊचे वरं वृणीष्व त्वं वरं ब्रह्मा तमब्रवीत् ११०७ ॥२८ ॥२६ ॥३० ॥३१ ॥३२ वरदायक देव को मैं नमस्कार करता हूं |२७| दिन की शोभा, देवगणों को विजय श्री प्रदान करने वाले, महादेव जी को यश प्रदान करने वाले, दैत्यों का विनाश कर सुर गुणों को प्रसन्न करने वाले, कलि के घोरु पापों को विनष्ट कर यश उपार्जित करने वाले, कलियुग में भी परम शोभा सम्पन्न, शरणागत रक्षक . भगवान् गदाधर को नमस्कार करता हूँ |२८| परम पुष्टि भक्ति रखने वाले भक्त जन जिसकी गाढ़ी भक्ति से ' स्तुति करते हैं, ऐसे परम कठोर से भी कठोर, अद्भुतकर्मशील, परम विक्रमशील, अजन्मा होकर भी शरीर धारण करनेवाले, कठोर पाप कर्मों को नष्ट करने वाले, पूज्यों में भी अग्रणी, पापियों को न प्राप्त होने वाले, भगवान् को हमारा नमस्कार है, जो वाक्य एवं मन से अगोचर होकर भी सवृंशों में उत्पन्न होने वाले हैं, शरीर रहित, करण एवं कलाओं से विहीन, अजन्मा, सूर्य की भाँति परम कान्तिमान्, ध्वनि एवं मुख से विहीन, अनादि परम ऐश्वर्यशाली भगवान् को सर्वदा नमस्कार करते हैं | २९-३०। मन से भी परे, बुद्धि को गति से भी अगम्य, परात्पर, द्वैतरहित, जिस भगवान् को पण्डित जन सर्वदा स्तुति करते हैं, उस चित्स्वरूप कलिकाल गत कारण समूहों से परे हृदय में विराजमान, उस भगवान् गदाधर को नमस्कार करते हैं |३१| सनत्कुमार बोले : – देवताओं समेत ब्रह्मा द्वारा इस प्रकार स्तुति किये जाने के उपरान्त विष्णु ने कहा, वरदान माँगिये । तब ब्रह्मा ने वरदान को याचना की कि देव ! इस देव- स्वरूपिणी शिला पर आपके विना हम लोग नहीं रहेंगे, व्यक्तादिस्वरूप सम्पन्न आपके साथ ही हम