पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११२४

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अष्टाधिकशततमोऽध्यायः जनार्दन नमस्तुभ्यं नमस्ते पितृमोक्षद | पितृपते नमस्ते तु नमस्ते पितरूपिणे गयायां पितृरूपेण स्वयमेव जनार्दनः । तं दृष्ट्वा पुण्डरीकाक्षं सुच्यते च ऋणत्रयात् + नमस्ते पुण्डरीकाक्ष ऋणत्रयविमोचक | लक्ष्मीकान्त नमस्ते तु पितॄणां मोक्षदो भव वामजानं सुसंपात्य नत्वा भीमो जनार्दनम् । श्राद्धं सपिण्डकं कृत्वा भ्रातृभिर्ब्रह्मलोकभाक् ॥ पितृभिः सह धर्मात्मा कुलानां च शतेन च शिलायां व्यक्तरूपेण व्यक्ताव्यक्तात्मना स्थितः । लक्ष्मीशो विबुधैः सार्ध तस्माद्देवमयी शिला इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते गयामाहात्म्यं नामाष्टाधिकशततमोऽऽध्यायः ॥ १०८ ॥ ११०३ ॥८८ ॥८६ 1180 ॥६१ को हम नमस्कार करते हैं, आप पितरो के स्वामी हैं, स्वयं पितृस्वरूप है, आप को हम नमस्कार करते हैं । गया क्षेत्र में भगवान् जनार्दन स्वयमेव पितृरूप से विराजमान रहते हैं, उन पुण्डरीकाक्ष भगवान् का दर्शन कर मानव अपने तीनों ऋणों से छुटकारा पाता है |८३-८६ तीनों ऋणों से मुक्ति देने वाले पुण्डरीकाक्ष, आप लक्ष्मी के कान्त हैं हमारे पित मोक्ष प्रदान करें आपको हमारा नमस्कार है । भीम ने अपने बाएँ घुटने को मोड़कर भगवान् जनार्दन को नमस्कार एवं पितरों के लिए पिण्डदान आदि करके भाइयों समेत ब्रह्मलोक की प्राप्ति की । यही नहीं उस धर्मात्मा ने पितरों समेत अपने सौ कुलों का भी उद्धार किया | उस पुनीत शिला के ऊपर लक्ष्मी पति भगवान् विष्णु अपने व्यक्ताव्यक्त स्वरूप से देवगणों के साथ स्वयमेव विराजमान रहते हैं, यही कारण है कि वह शिला देवमयी कही जाती है |१०-१२ श्रीवायुमहापुराण में गयामाहात्म्य नामक एक सौ आठवां अध्याय समाप्त ॥१०८|| + एतच्छ्लोकस्थानेऽयं श्लोकः क. पुस्तके स यथा - नमस्ते पुण्डरीकाक्ष नमस्ते विश्वभावन लक्ष्मीकान्त नमस्तुभ्यं नमस्ते मुक्तिहेतवे ।