पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११२५

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११४ वायुपुराणम् अथ नवाधिकशततमोऽध्यायः गयामाहात्म्यम् नारद उवाच 1 कथं व्यक्तस्वरूपेण स्थितश्चाऽऽदिगदाधरः । कथं व्यक्तस्वरूपेण व्यक्ताव्यक्तात्मना स्थितः कथं गदा समापन्ना यथा ह्यादिगदाधरः । गदालोलं चाssसोत्सर्वपापक्षयंकरम् सनत्कुमार उवाच गदो नामासुरो ह्यासीद्वज्ञाद्वज्ञतरो दृढः । प्रार्थितो ब्रह्मणे प्रादात्स्वशरीरास्थि दुस्त्यजम् ब्रह्मोक्तो विश्कर्माऽपि गदां चक्रेऽद्भुतां तदा । तदस्थि वज्रनिष्पेपैः कुन्दैः स्वर्गे ह्यधारयत् अथ कालेन महता सनौ स्वायंभुवे क्वचित् । हेती रक्षो ब्रह्मपुत्रस्तपस्तेपे सदारुणम् दिव्यवर्षसहस्राणां शतं वायुमभक्षयत् | उन्मुखश्चोर्ध्ववाहुश्च पादाङ्गुष्ठभरेण ह ॥१ ॥२ ॥३ ॥४ ॥५ अध्याय १०६ गया माहात्म्य नारद बोले - सनत्कुमार जी ! आदि गदाधर भगवान् किस प्रकार व्यक्त रूप में अवस्थित है ? व्यक्ताव्यक्त स्वरूप से वे व्यक्त स्वरूप में किस प्रकार अवस्थित है ? वह गदा किस प्रकार उत्पन्न हुई जिससे उनकी आादि गदाधर उपाधि हुई ? सभी पापों को विनष्ट करनेवाली उस गदा की चञ्चलता किस प्रकार हुई |१-२॥ सनत्कुमार बोले- प्राचीनकाल में षज्र से भी परमकठोर गद नामक एक घोर असुर था, ब्रह्मा के प्रार्थना करने पर उसने अपनी हड्डियां ब्रह्मा को समर्पित की थीं, जिनका देना परम कठिन कार्य था । ब्रह्मा के कहने पर विश्वकर्मा ने उन हड्डियों की एक अद्भुत गदा बनाई उस अस्थिखण्ड की वज्र भेदन करने वाले यन्त्रों से गदा बनाकर स्वर्ग लोक में विश्वकर्मा ने स्थापित किया था |३-४ | बहुत दिन बीत जाने के बाद की बात है एक बार स्वायम्भुव मभ्यन्तर में ब्रह्मनन्दन हेति नामक राक्षस ने परम कठोर तपस्या की, एक लाख दिव्य वर्षो तक उसने केवल वायु का आहार किया, एक पैर के अंगूठों पर खड़े रहकर मुख