पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११२२

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अष्टाधिकशततमोऽध्यायः पृथविस्थताच बहवो विघ्नकारिण एव ते । श्राद्धादिकारिणां नृणां तोर्थे पितृविमुक्तये ॥ प्रेता धानुष्करूपेण करग्रहणकारकाः ११०१ ॥७० ॥७१ पादाङ्कितां मुण्डपृष्ठां महादेवनिवासिनीम् । तां दृष्ट्वा सर्वलोकश्च मुक्तः पापोपपातकैः ] गयाशिरसि पुण्ये च सर्वपापविवर्जिते । प्रेतादिवर्जितं यस्मात्ततोऽतिपावनं वरम् ॥७२ ॥७३ ॥७४ ॥७६ · कोकटेषु गया पुण्या पुण्यं राजगृहं वनम् । च्यवनस्याऽऽश्रमं पुण्यं नदी पुण्या पुनः पुना वैकुण्ठो लोहदण्डश्च गृध्रकूटश्च शोणकः । अत्र श्राद्धादिना सर्वान्वितन्ब्रह्मपुरं नयेत् क्रौञ्चरूपेण हि मुनिर्मुण्डपृष्ठे तपोऽकरोत् । तस्य पादाङ्कितो यस्मात्कौञ्चपादस्ततः स्मृतः ॥७५ स्नातो जलाशये तत्र नयेत्स्वर्गं स्वकं कुलम् | बलिः काकशिलायां च काकेभ्य ऋणमोक्षदः मुण्डपृष्ठस्य सानौ हि लोमशो लोमहर्षणः । द्वावेतौ परमं तप्त्वा तपःसिद्धि परां गतौ आहूतास्तु सरिच्छ्रेष्ठा लोमशेन महानदी | शरावती वेत्रवती चन्द्रभागा सरस्वती कावेरी सिन्धुवीरा च चन्दना च सरिद्वरा | वासिष्ठी सरयूर्गङ्गा घसुना गण्डकीन्दिरा महावैतरणी नाम्ना निक्षरा च दिवौकसः | सावव्यलकनन्दा ( ? ) च उदीची कनकाह्वया ॥७७ ॥७८ । ॥७६ ॥५० के कार्यों में विघ्न डालनेवाले बहुत से प्रेत धनुष धारण करा अलग स्थित रहते हैं, और उनका हाथ पकड़ लेते हैं, अर्थात् बहुतेरा विघ्न डालते हैं | ६६.७०। महादेव की निवासस्थली मृण्डपृष्ठा नामक एक शिला है, जो उनके चरण चिन्हों से अङ्कित है । उसका दर्शन कर समस्त लोक पापों एवं उपपापों से मुक्त हो जाता है। समस्त पापों से विसर्जित, पुण्यप्रद गयाशिर यतः प्रेतादि से रहित है, अतः उसे सर्वापेक्षा परम पुनीत एवं सुन्दर, कहा जाता है। सारे मगध प्रदेश के तीर्थों में गया नगरी सर्वाधिक पुण्य प्रदायनी है, राजगृह नामक वन सभी वनों में अधिक पुण्य प्रद है, आश्रमों में च्यवन का आश्रय अधिक पुण्य प्रद है, नदियों में पुनपुना नदी सबसे अधिक पुण्यदायिनी है । इसी प्रकार वैकुण्ठ, लोहदण्ड, गृध्रकूट और शोणक भी पुण्य प्रद है, इन स्थानों पर श्राद्धादि द्वारा मनुष्य अपने सभी पितरों को ब्रह्मपुर पहुंचाता है |७१-७४ | मुण्ड पृष्ठ पर मुनि ने क्रौञ्च पक्षी का रूप धारण कर तपस्या की थी, उनके चरणों के चिह्नों से यह चिह्नित भी है, इसी कारण से इसका क्रौञ्चपाद नाम स्मरण किया जाता है । वहाँ जाकर जलाशय में स्नान करनेवाला प्राणी अपने कुल को स्वर्ग को पुरी में पहुँचाता है । काकशिला पर कौआ का वलि कर्म ऋण से मुक्ति दिलाने वाला है । मुण्डपृष्ठ की उपत्यका में लोमहर्षण और लोमश इन दोनों ने परम कठोर तपस्या करके परम सिद्धि की प्राप्ति की थी । लोमश ने इस स्थान पर, नदियों में श्रेष्ठ महानदी, शरावती, होत्रवती, चन्द्रभागा, सरस्वती, कावेरी सिन्धुवीरा, चन्द्रना, वाशिष्ठी, सरयू, गंगा, यमुना, गण्डकी, इन्दिरा, स्वर्गवासियों की निक्षरा महावंतरणी, अलकनन्दा,